मंगलवार, 29 जून 2010

द्रोणाचार्य अऊर एकलव्य

जब से लिखना सुरू किए हैं, तब से केतना लोग हमको बोला कि आप का लिखने का ढंग बहुत बढिया है, एक बार सुरू करने पर एक साँस में पूरा पढ़ जाते हैं. आप सोचते होंगे कि ई सुनकर हमको बहुत खुसी होता होगा, लेकिन अईसा बात नहीं है. सच पूछिए त इसका पूरा क्रेडिट हमरे तीन गुरू को जाता है, जिनके बारे में हम कभी आप लोग से सीरियसली नहीं बतिआए हैं. लेकिन ई तीन लोगों का एतना असर हुआ है हमरे लिखने पर कि अगर लिखने का ढंग कॉपीराईट कानून के अंदर आता, त हम कबका अंदर हो गए होते. ई तीन लोग हैं डॉ. राही मासूम रज़ा, गुलज़ार साहब अऊर श्री के. पी. सक्सेना.

राही मासूम साहब का सायद ही कोनो उपन्यास होगा जो हम नहीं पढे हों. ऊ अपना एक उपन्यास के पहिला पन्ना पर लिखे थे कि इस उपन्यास में जेतना लोग चलता, फिरता, बोलता देखाई दे रहा है ऊ हमरा बनाया हुआ है अऊर अल्ला मियाँ का बनाया हुआ किसी आदमी से अगर ई मेल खाता है, त ई संजोग हो सकता है, इसमें हमरा कोई गलती नहीं है. एतना सहजता से कहा जाने वाले डिस्क्लेमर कभी सुने हैं आप लोग.. नहीं न! एही खासियत है रज़ा साहब का. नॉवेल का एक एक आदमी आपको आस पास घूमता देखाई देगा, अईसा लगेगा कि आप मिले हैं उससे. उसका पहनावा, उसका बोली. पूरा नॉवेल आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ता है. इसलिए भासा के बारे में सोचने का कोनो जरूरत नहीं, उनका कहना है कि हमरा किरदार अगर अश्लोक बोलेगा त हम अश्लोक लिखेंगे अऊर गाली बोलेगा त गाली. उपन्यास का भासा, वास्तव में हिंदीओ नहीं है, न उर्दूए है, न भोजपुरिए. ई बस बोली है. हमरे पिताजी के एगो दोस्त उनके रिस्तेदार थे. कहे थे कि उनके घर इलाहाबाद जब ऊ आएंगे त हमसे भेंट करा देंगे, लेकिन हमारा किस्मत में नहीं बदा था मिलना. ऊ दोबारा इलाहाबाद आइए नहीं पाए.

गुलज़ार साहब, त सम्वेदना के धनी आदमी हैं. इनका भी डायलॉग एतना सहज होता है कि कहना मुस्किल है. फिलिम ‘अंगूर’ का मजाकिया सम्बाद हो चाहे ‘गृह प्रवेश’ का साहित्यिक. ई फिल्म का डायलॉग नोट करने के लिए, हम अंधेरा में डायरी लेकर देखने गए थे सिनेमा, अऊर एक हफ्ता में तीन बार देखे थे. उम्मीद नहीं था कि चलेगा, लेकिन चल गया तीन महीना. गुलज़ार साहब का कविता अईसा अईसा प्रतीक लेकर आता है कि कहना नहीं. आम आदमी के सोच से बाहर, लेकिन सुनने के बाद लगता है कि मन का बात बोल दिए हैं. इनका त सबसे बड़ा खासियत एही है कि ई एगो अलगे डिक्सनरिए बना दिए हैं. सब्द नया लगता है लेकिन वास्तव में भुलाया हुआ सब्द होता है. हर कबिता, हर फिल्मी डायलॉग आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ेगा. भासा उनके हिसाब से उर्दू भी है अऊर हिंदुस्तानी भी. मुम्बई में एक बार उनका फोन नम्बर मिला दिए थे, जब ओन्ने से उनका आवाज सुनाई दिया त डरे हाथ से फोन छूट गया. तनी मनी बतिआए, मन तृप्त हो गया.

के. पी. सक्सेना जी हमरे दिल के बहुत करीब हैं, काहे कि इनके साथ हमरा बचपन जुड़ा हुआ है. इस्कूल में पढ़ते थे तब ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के पत्रिका ‘पराग’ में उनका धारावहिक कहानी छपता था “बहत्तर साल का बच्चा”. पहिला बार ओही गढ़े थे एगो अईसा करेक्टर जो “स” को “फ” बोलता था (आज ‘कमीने’ सिनेमा में लोग को ई बात नया लगता है, जो ऊ आज से तीस साल पहिले लिख दिए). देसी मुहावरा का जेतना बेहतर इस्तेमाल ऊ किए हैं, सायदे कहीं देखने को मिलेगा. भासा ठेठ लखनऊ के गुड़ में पका हुआ. एकदम नया भासा, जिसमें उर्दू का मिठास था और अवधी का अपनापन. कवि सम्मेलन में गद्य पढने वाले ऊ पहिला अऊर सायद एकलौता साहित्यकार रहे होंगे (सरद जोसीजी भी बाद में पढ़ते थे). फिलिम ‘लगान’ अऊर ‘स्वदेस’ में किसान का बोली भी ओही लिखे थे, ‘जोधा अकबर’ में जिल्ले इलाही का उर्दू भी उन्हीं का कलम से निकला था अऊर ‘हलचल’ फिलिम का कॉमेडी भी. जब हम पहिला बार लखनऊ गए त भूलभूलईया देखने बाद में गए, सबसे पहिले उनका दर्शन करके, उनका चरन छूकर आसिर्बाद लिए.
ई तीनों महान लेखक लोग में एक्के समानता है कि ई लोग लिखते नहीं हैं, बतियाते हैं. इनका किरदार डायलॉग नहीं बोलता है, बतियाता है. बस हम भी कोसिस करते हैं कि आप लोग से बतिया सकें. नहीं त लिखना हमको कहाँ आता है, न साहित्य से कोनो नाता है. बस ई तीनों द्रोणाचार्य का मूरत, अपना मन में बनाकर एकलव्य बनने का कोसिस कर रहे हैं.

शनिवार, 26 जून 2010

कर्ज कलकत्ता का

बचपने से सोचते थे कि बिहार के पूरब में पश्चिम बंगाल है, त आखिर पूर्वी बंगाल कहाँ है? पता चला पूर्वी बंगाल कहीं नहीं है, जो था आजकल पूर्वी पाकिस्तान कहलाता है. त बेकारे न बंगाल को पश्चिम बंगाल कहते हैं! मगर हमरा बात का त कोनो भैलूए नहीं. खैर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान बन गया बांगला देस. तबो पश्चिम बंगाल का नाम ओही रहा. आखिर में हम हार मान कर मन में बईठा लिए कि एही नाम सही है. लेकिन बोलने से त कोनो हमको रोक नहिंए सकता था, एही से आज तक बंगाल बोलते हैं.
का मालूम था कि इसी देस का राजधानी में हमको छः साल काम करना पड़ेगा. अऊर इहो मालूम नहीं था कि ई सहर हमरे जन्मभूमि के बाद, हमरे जीवन का हिस्सा बनने वाला पहिला सहर हो जाएगा. इतिहास, आजादी का लड़ाई, साहित्य, संगीत, संस्कृति, शिल्प, कला अऊर का बोलें. बंगाल का जोगदान ई देस भुला नहीं सकता है.
मक्खन में से तेज छूरी डालकर निकाल लीजिए, तबो छूरी पर मक्खन का निसान रहिए जाता है. ओही तरह से कलकत्ता छूटने के बाद भी हमरे अंदर कलकत्ता रहिए गया. संस्कृति चीजे अईसा है कि जेतना उसमें समाइएगा, ओतने उसी रंग में रंगते जाइएगा. अईसहीं संस्कृति आगे बढता है, एक हाथ से दूसरा हाथ अऊर एक पीढ़ी से दोसरा पीढ़ी.
नारी जाति के सम्मान का गजब तरीका है बंगाल का. बेटी को माँ कहकर पुकारते हैं. सच भी है. बंगाल के समाज में आज भी बहुत सा लड़की लोग बिना सादी किए देखाई देती है. कारन सादी के बाद ससुराल चल जाने से घर पर बूढ़ा माँ बाप को कौन देखेगा. माँ के तरह सेवा करती है बेटी अपने माँ बाप का.
दोसरा बात, साथ में काम करने वाले पुरुष को दादा, माने भाई, अऊर स्त्री को दीदी कहना. लेकिन एहीं से एगो समस्या सुरू हुआ हमरे साथ. कोई भी उमर का स्त्री अगर आपके साथ काम करती है त उसको दीदी कहकर बोलाया जाता है बंगाल में. एही से बिबेकानंद जी अमेरिका में ‘ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका” कहे थे, जो इतिहास है. हम भी ओही रंग में रंग गए. अशोक दा, शुप्रभात दा, मानस दा अऊर शोनाली दी, डालिया दी, शुभ्रा दी, अंजलि दी...
समस्या अंजलि दी से सुरू हुआ. अंजलि दासगुप्ता, उमर 55 साल, हमरे उमर से डेढ़ गुना, एक बेटा जिसका उमर हमरे उमर से कुछ कम... हमरे ठीक बगल में बैठती थीं. साम को देर तक रुकना होता, त हम लोग कह देते कि हमलोग कर लेंगे आप जाइए. अंधेरा हो रहा है. इसपर उनका जवाब होता, “तोमरा जवान छेले. आमि तो बूड़ो लोग. तोमरा बाड़ी गिए, फेमिली शोंगे एंज्वॉय कोरो. तोमार काज होए गेछे तो?” कभी ऊ हमलोगों के ऊपर काम छोड़ कर भागी नहीं, जईसा अऊर लड़की लोग करती थीं.
एक दिन उनको कोई बात कहने के लिए हम घूमे, अऊर उनके तरफ देखकर बोले, “अंजलि दी!” अऊर एतना बोलते साथ हमारा आवाज बंद हो गया. हमको उनका अंदर एक माँ का चेहरा देखाई देने लगा. तब हम तुरत अपना बतवा भुला कर उनसे बोले, “अंजलि दी! आमि आपनाए दीदी बोलते पारबो ना. आपना के दीदी ना, मम्मी बोला उचित.” उनका आँख में लोर भर गया. बाकि हम जेतना दिन कोलकाता में रहे, उनको मम्मी बोलते रहे. पूरा ऑफिस में लोग उनको हमरा मम्मी के रूप में जानता था. एहाँ तक कि हमरा बॉस भी इण्टरकॉम पर बोलता कि तुम्हारी मम्मी के लिए कॉल है, भेज दो.
हमरे घर में कोई औलाद नहीं था, एही सहर ने हमको सारा उम्मीद हार जाने के बाद एगो बेटी दिया. जो आदमी भगवान के हर दरवाजा से निरास लौटा, उसको अचानक सब उम्मीद छोड़ देने के बाद औलाद, ऊ भी बेटी, दिया एही सहर कोलकाता ने. बनारस, बिंध्याचल, मैहर, गुरुवायूर, तिरुपति, हरमंदिर साहिब… मजार, दरगाह, गिरजा... सब जगह माथा झुकाए, झोली फैलाए. अंत में सब बंद. जब मांगे, तब नहीं मिला, जब मिला तब मांगना छोड़ चुके थे… खैर बिसय से भटक गए. माफ कीजिएगा.
हम कह रहे थे कि बंगाल का बहुत बड़ा एहसान है हमरे ऊपर. एक मम्मी अऊर एक बेटी का कर्जा भी है.

गुरुवार, 24 जून 2010

दिल के बोझ का किराया

“तुम काहे ई छोटा-मोटा नौकरी करने को तैयार हुए?”
“का करते 21 साल के पहले सादी नहीं कर सकते अऊर उसके पहिले नौकरी नहीं मिला त लोग घर से निकाल देगा. कहाँ से खिलाएंगे तुमको!”
“लेकिन ई नौकरी तुमरे काबिलियत से कम है.”
“काबिलियत त झाड़ू लगाने का नौकरी में भी है. अऊर काबिलियत के हिसाब का नौकरी 21 के पहले नहीं मिलेगा. एतना सबर नहीं है हमरे पास. तुमको सरम त नहीं बुझाएगा न हमरे साथ चलने में?”
“का बात करते हो!"
                      %%%%%%%
20 साल में हम परीक्षा दिए, अऊर 21 साल के पहिले नौकरी मिल गया. सहर छोड़ना पड़ा. जौन साल फरवरी में हम 21 के हुए, ओही साल जून में उसका सादी हो गया... गलत बोल दिए सादी कर दिया गया. हम जानते हैं कि ऊ आसानी से नहीं मानी होगी, बिरोध करबे की होगी, लेकिन उसका आवाज दबा दिया गया. खाप पंचायत होता, त गला दबा देता. फिर एकाध बार हम लोग का मुलाकात हुआ, मगर बतिआए नहीं. न हम कारन पूछे, न ऊ कोनो सफाई दी.
                       %%%%%%%
सात साल बाद...

“तुम सादी काहे नहीं कर लेते हो?”
“कोनो कसम त नहिंए खाए हैं कि नहीं करेंगे. तुमको त मालूमे है कि हम केतना जिद्दी हैं.”
“तुमरे सादी में हम नहीं आएंगे.”
“हम भी एही चाहते हैं. बाकी दुनियादार है, इसलिए न्यौता त देना ही पड़ेगा.”
“अच्छा एगो बात पूछें? हमरा चिट्ठी सब का किए?”
“लॉकर में रखा हुआ है.”
“लॉकर में! मम्मी समान निकालते समय देखेंगी नहीं!”
“खाली चिट्ठी है ऊ लॉकर में. तुमरा चिट्ठी के साथ, अऊर कुछ रखियो त नहीं सकते है.”
“पागल हो का, जला दो ऊ सब. बेकार काहे ढो रहे हो.”
“दिल पर उठाए हैं, एही से बोझा नहीं लगता है. अऊर जलाने को काहे बोली, डर लगता है का हमसे.”
“दाढी बढा लेने से, कोई डरावना नहीं लगने लगता है!”
“फिर काहे बोली चिट्ठी जलाने के लिए?”
“हम त इसलिए बोले कि फालतू में लॉकर का किराया काहे दे रहे हो. पईसा बरबाद करना अच्छा बात नहीं है!”
“साढ़े सात सौ रुपया सालाना है किराया. तुमरे याद का कीमत के हिसाब से किराया बेसी नहीं है.”
“ए छोटी!!”
“का है मम्मी!! आते हैं!"


सोमवार, 21 जून 2010

बाबू लोहा सिंह - एक याद!!

(इस्तुती पांडे के अनुरोध पर; यादों के गलियारे से, एक मील  का पत्थर)

आकासबानी पटना से एगो प्रोग्राम होता था “चौपाल”. ई देहाती प्रोग्राम था. इसमें एगो मुखिया जी थे, जो हिंदी में बात करते थे, उनके अलावा बुद्धन भाई भोजपुरी में, बटुक भाई मैथिली में और गौरी बहिन मगही में. फॉर्मेट अईसा था कि बिहार का सारा भासा उसमें आ जाए. इसी में सुकरवार को बच्चा लोग का प्रोग्राम होता था हिंदी में “घरौंदा”.
लेकिन चौपाल कार्यक्रम का सबसे बड़का आकर्सन था भोजपुरी धारावाहिक नाटक “लोहा सिंह”. ई नाटक बिबिध भारती के हवा महल में होने वाला धारावहिक “मुंशी एतवारी लाल” के जईसा था. लोहा सिंह, एक रिटायर फौज के हवलदार थे, जिनके पास फौज का सारा कहानी काबुल का मोर्चा पर उनका पोस्टिंग के दौरान हुआ था.
लोहा सिंह के परिवार में, उनके साथ लगे रहते थे एगो पंडित जी, जिनको लोहा बाबू फाटक बाबा कहते थे, नाम त उनका पाठक बाबा रहा होगा. उनकी पत्नी जिनका असली नाम कोई नहींजानता था, काहे कि लोहा बाबू उनको खदेरन का मदर कहकर बुलाते थे. इससे एतना त अंदाजा लगिए गया होगा आप लोग को कि उनका बेटा का नाम खदेरन था. खदेरन के मदर के साथ उनकी सहेली अऊर घर का काम करने वाली एगो औरत थी भगजोगनी. एगो करेक्टर त भुलाइये गए, लोहा सिंह का साला बुलाकी. घर में सब लोग भोजपुरी भासा में बतियाता था, लेकिन लोहा सिंह हिंदी में बात करते थे. ई पोस्ट हम जऊन हिंदी में लिखते हैं,बस एही भासा था बाबूलोहा सिंह का.
ई धारावहिक का सबसे बड़ा खूबी एही था कि ई समाज में प्यार, भाईचारा अऊर मेलजोल का संदेस देता था. हर एपिसोड, गाँव में कोनो न कोनो समस्या लेकर सुरू होता था, अऊर अंत में लोहा सिंह जी के अकलमंदी से सब समस्या हल, दोसी पकड़ा जाता. ई सीरियल का सबसे बड़ा खासियत था उनका बोली. एही बोली से बिहार का सब्द्कोस में केतना नया सब्द आया. फाटक बाबा, मेमिन माने अंगरेज मेम, बेलमुंड यानि मुंडा हुआ माथा, बिल्डिंग माने खून बहना ( ऐसा फैट मारे हम उसको कि नाक से बिल्डिंग होखने लगा), घिरनई माने घिरनी ... अऊर बहुत कुछ.
हर नाटक का अन्त उनका ई डायलाग से होता था , देखिए फाटक बाबा, फलनवा का बेटी को अच्छा बर भी दिला दिए, ऊ दहेज का लालची को जेल भेजवा दिए, अऊर गाँव का बेटी को सब घर परिवार का सराप (श्राप) से मुक्ति दिला दिए. इसपर फाटक बाबा कहते कि को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो. अऊर नाटक खतम.
उनका एगो सम्बाद आजो हमरे दिमाग में ताजा है, जइसे कल्हे सुने हैं:
“जानते हैं फाटक बाबा! एक हाली काबुल का मोर्चा पर, हमरा पास एगो बाबर्ची सिकायत लेकर आया. उसका पट्टीदारी में कोई मू गया था इसलिए ऊ माथा मूड़ाए हुए था. हमको बोला – बाबू लोहा सिंह, बताइए त, आपका होते हुए कर्नैल हमरा माथा पर रोज तबला बजाता रहता है. हम बोले कि हम बतियाएंगे. हम जाकर करनैल को बोले कि उसका घर में मौत हो गया है, अऊर आप उसका बेलमुंड पर घिरनई जईसा तबला ठोंकते हैं. ई ठीक बात नहीं है. करनैल बोला कि ठीक है, हम नहीं करेंगे. जानते हैं फाटक बाबा, जब ई बात हम ऊ बाबर्ची को बताए त का बोला. ऊ बोला कि ठीक है बाबूसाहब ऊ तबला नहीं बजाएगा त हम भी उसका मेमिन का नहाने का बाद जो टब में पानी बच जाता है, उससे चाह बनाकर नहीं पिलाएंगे उसको.”
ई नाटक के लेखक अऊर लोहा सिंह थे श्री रामेश्वर सिंह कश्यप, अऊर खदेरन को मदर थीं श्रीमती शांति देवी. कश्यप जी पहले पटना के बी.एन. कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे, बाद में जैन कॉलेज आरा के प्रिंसिपल बने.
लम्बे चौड़े आदमी, नाटक में कडक आवाज, लेकिन असल जिन्नगी में बहुत मोलायम बात करने वाले. एक दिन पुष्पा दी के ऑफिस में आए और बैठ गए. हम बगले में बैठे थे.
पुष्पा दी पूछीं, “चाह (चाय) पीजिएगा, मंगवाऊं?”
कश्यप जी बोले, “आपकी चाह छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए.”
आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ई लोग अपने आप में इस्कूल थे. कोई ट्रेनिंग नहीं, लेकिन अदाकारी देखकर कोई बताइए नहीं सकता है कि केतना गहराई है. बहुत कुछ सीखे हैं इन लोगों से, तब्बे एतना तफसील से चार दसक बाद भी लिख पा रहे हैं. अईसा लोग मरते नहीं हैं.
ईश्वर उनके आत्मा को शांति दे!!
एगो बात त छूटिये गया:
खदेरन का मदर का तकिया  कलाम था "मार बढ़नी रे" और फाटक बाबा का था "जे बा से बीच के बगल में".
 

शनिवार, 19 जून 2010

हँसी का कीमत

हम त रेडियो के जमाना में पैदा हुए, इसलिए रेडियो पर नाटक करते थे, बचपने से. आकासबानी पटना के तरफ से हर साल होने वाला इस्टेज प्रोग्राम में, पहिला बार आठ साल का उमर में इस्टेज पर नाटक करने का मौका मिला. नाटक बच्चा लोग का था, इसलिए हमरा मुख्य रोल था. साथ में थे स्व. प्यारे मोहन सहाय (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सुरू के बैच के इस्नातक, सई परांजपे से सीनियर, 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' अऊर परकास झा के फिल्म 'दामुल' अऊर 'मृत्युदण्ड' में भी काम किए) अऊर सिराज दानापुरी. प्यारे चचा के बारे में फिर कभी, आज का बात सिराज चचा के बारे में है.
देखिए त ई बहुत मामूली सा घटना है, लेकिन कला का व्यावसायिकता अऊर कलाकार का विवसता का बहुत सच्चा उदाहरन है. सिराज चचा एक मामूली परिबार से आते थे, अऊर उनका जीबिका का एकमात्र साधन इस्टेज पर कॉमेडी शो करना था. इस्टैंड-अप कॉमेडी के नाम पर आज टीवी में जेतना गंदगी फैला है, उससे कहीं हटकर. स्वाभाविक अऊर सहज हास्य उनका खूबी था. खुद को कभी कलाकार नहीं कहते थे, हमेसा मजदूर कहते थे. बोलते थे, “एही मजूरी करके दुनो सिरा मिलाने का कोसिस करते हैं."
रेडियो नाटक का रेकॉर्डिंग के समय, रिहर्सल के बीच में जब भी टाईम मिलता था,ऊ सब बड़ा अऊर बच्चा लोग को इस्टुडियो के एक कोना में ले जाकर, अपना कॉमेडी प्रोग्राम सुरू कर देते थे. सबका मनोरंजन भी होता था, अऊर रिहर्सल बोझ भी नहीं लगता था. सिराज चचा सीनियर कलाकार थे, इसलिए उनको आकासबानी से 150 रुपया मिलता था, अऊर हम बच्चा लोग को 25 रुपया.
एक बार रिहर्सल के बीच पुष्पा दी (प्रोग्राम प्रोड्यूसर अऊर हमरी दूसरी माँ, जिनका बात हम अपना परिचय में कहे हैं) सिराज चचा को उनका रोल के लिए एगो खास तरह का हँसी निकालने के लिए बोलीं. ऊ बिना पर्फेक्सन के किसी को नहीं छोड़ती थीं. पहिला बार ऊ सिराज चचा से झल्ला गईं. बोलीं, “सिराज भाई! क्या हो गया है आपको. कुछ जम नहीं रहा.” सिराज चचा ने हँसी का बहुत सा सैम्पल दिखाया. लेकिन पुष्पा दी को कोई भी मन से पसंद नहीं आया. आखिर बेमन से रिहर्सल हुआ अऊर रेकॉर्डिंग का टाईम आया.
सिराज चचा, बीच में अपना चुटकुला लेकर सुरू हो गए. ओही घड़ी एगो लतीफा पर सब लोग हँसने लगा, अऊर सिराज चचा भी अजीब तरह का हँसी निकाल कर हँसने लगे. माइक ऑन था, इसलिए आवाज कंट्रोल रूम में पुष्पा दी को भी सुनाई दिया. ऊ भाग कर इस्टुडियो में आईं, अऊर बोलीं, “सिराज भाई! यही वाली हँसी चाहिए मुझे."
लेकिन इसके बाद जो बात सिराज चचा बोले, ऊ सुनकर पूरा इस्टुडियो में सन्नाटा छा गया, दू कारन से. पहिला कि पुष्पा दी को कोई अईसा जवाब देने का हिम्मत नहीं करता था, दुसरा एगो मजाकिया आदमी से अईसा जवाब का कोई उम्मीद भी नहीं किया था. सिराज चचा जवाब दिए, “दीदी! आप उसी हँसी से काम चलाइए. क्योंकि यह हँसी डेढ़ सौ रुपए में नहीं मिलती है, इसकी क़ीमत पाँच से छः सौ रुपए है." एतना पईसा ऊ अपना इस्टेज प्रोग्राम का लेते रहे होंगे उस समय.
रेकॉर्डिंग हुआ, अऊर सिराज चचा ने अपना ओही डेढ़ सौ रुपया वाला हँसी बेचा. एगो कलाकार का कला दिल से निकलता है, लेकिन पहिला बार महसूस हुआ कि पेट, दिल के ऊपर भारी पड़ जाता है.
हमको अपना कहा हुआ एगो शेर याद आ गया:
        फ़न बेचने को अपना मैं निकला तो हूँ घर से
        बाज़ार  मिल   गया  है,  ख़रीदार   तो   आए! 

गुरुवार, 17 जून 2010

जवाब मत दीजिए - मुँह भी बंद मत कीजिए

आज पहिला बार हमको ई पोस्ट लिखने में बहुत दुबिधा का सामना करना पड़ रहा है. सोचे लिखें कि नहीं. फिर सोचे कि नहीं लिखकर बेमतलब हम अपना रात का नींद हराम करेंगे. एक त अईसहीं कम सोने का बिमारी है. बहुत बिचार के बाद सोचे लिखिए देते हैं, पढने वाला लोग को इससे कोई सरोकार हो चाहे न हो, हमको चैन मिल जाएगा.
ओशो अपना बिद्रोही बचपन का बहुत सा घटना लिखे हैं. उसी में एगो उनका परिवार का घटना ऊ लिखे हैं. एक बार एक जैन मुनि उनके घर पर आए, काहे कि उनका परिवार गाँव में अकेला जैनी परिवार था. ऊ मुनि जी का ई नियम था कि ऊ खाना खाने के बाद घर परिवार के लोग को उपदेस देते थे. अचानक बालक ओशो उठ खड़ा हुए अऊर उनसे पूछ बईठे.
“जैन धर्म में पूरी कोशिश है कि दुबारा जन्म न लेना पड़े. यह एक विज्ञान है दुबारा जन्म लेने को रोकने का. क्या आप दुबारा जन्म नहीं लेना चाहते?”
"कभी नहीं.”
“फिर आप आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते.जब आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते, तो आप जीवित क्यों हैं?”
मुनि ने बहुत गुस्से से देखा तो मुझे कहना पड़ा, “याद रखिए, आपको दुबारा जन्म लेना ही पड़ेगा, क्योंकि आपमें अभी भी क्रोध है. आप इतने गुस्से से मुझे क्यों देख रहे हैं. मेरे प्रश्न का उत्तर शंति से दीजिए. सुखपूर्वक उत्तर दीजिए. अगर आप उत्तर नहीं दे सकते तो कह दीजिएकि मैं नहीं जानता. लेकिन इतना क्रोध मत कीजिए.”
वह अवाक् रह गया. वह विश्वास ही न कर सका कि एक बच्चा इस प्रकार का प्रश्न पूछ सकता है. आज मुझे भी विश्वास नहीं हो सकता है. मैं कैसे ऐसे प्रश्न पूछ सका इसका एक ही उत्तर मैं दे सकता हूँ कि मैं अशिक्षित था,अज्ञानी था. ज्ञान, जानकारी तुम्हें चालाक बना देती है. मैं चालाक नहीं था. था. मैंने वही प्रश्न पूछे जो कोई भी पूछ सकता था अगर वह शिक्षित न होता तो. शिक्षा मासूम बच्चे के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है.
ओशो कहते हैं कि ई उनके प्रश्न पूछने का सुरुआत नहीं था, बल्कि दुनिया का उत्तर नहीं देने का सुरुआत था.

ई घटना पढने में बहुत अच्छा लगता है. लेकिन इसका अनुभव अऊर भी सुंदर है. अऊर कष्ट देने वाला भी. बच्चा त अनपढ होता है. बहुते सवाल पूछता है, केतना बार हमलोग जवाब नहीं जानते हैं तइयो बच्चा को मनगढंत जवाब दे देते हैं. कभी कभी गुस्सा होकर कहते हैं कि भाग यहाँ से पढाई लिखाई करना नहीं है, बेमतलब का बात पूछता रहता है. जा तेरह का पहाड़ा याद करके आओ.
लेकिन बास्तव में ई गुस्सा हमरा अपने ऊपर होता है, बच्चा का ऊपर नहीं, काहे कि हम जवाब नहीं जानते हैं. बच्चा बड़ा हो जाए त हम उसको ई भी नहीं कहते हैं कि अच्छा हमको जवाब नहीं पता, तुम बताओ. अईसा कहने से अपना कमी जाहिर हो जाएगा. ई भी नहीं स्वीकारना चाहते हैं हम लोग.

खैर हमरा बिचार में त सवाल जवाब से सम्बाद बनता है और सम्बाद से संबंध. उत्तर नहीं देना त अपराध हईये है, जवाब में चुप रह जाना त अऊर बड़ा अपराध है.

लेकिन इसका बारे में का कहिएगा कि सवाल सुनकर, जवाब देने, नहीं देने, चुप रह जाने के बदले, मुँह दबाकर प्रस्न पूछने वाला का अवाज बंद कर देना, ऊ अनपढ, असिक्षित, नादान बच्चा के प्रति अन्याय नहीं है?


मंगलवार, 15 जून 2010

जाको राखे साइंयाँ

अचानक दू दिन पहिले पटना जाना पड़ गया. अभी कुछ दिन पहिले आए थे अऊर तुरते फिर जाना पड़ेगा, सोचबो नहीं किए थे. बाकी सिचुएशन अईसा हो गया कि जाना पड़ा. अचानके सुकरवार के भोर में हमरी माता जी का पटना से फोन आया, अऊर ऊ फोन में बात से जादा रोए जा रही थीं. बुझाइये नहीं रहा था कि का बात हुआ है.
जब हम जोर से बोले, त उनके मुँह से एतने बात फूटा कि दुलहिन (हमरा मंझला भाई, जे पटना में रहता है, का पत्नी) का एक्सीडेंट हो गया है अऊर ऊ हस्पताल में भरती हैं. तुरते आनन फानन में हम पटना पहुँचे. दुलहिन का तबियत ठीक नहीं लग रहा था. माथा में बहुत गहरा भितरिया चोट था. कोनो खून नहीं निकला, बाकी रिपोर्ट में पता चला कि खून माथा में जम गया है.
अभी दू दिन पहिले भाई के सास को कमजोर हार्ट अटैक आया था, अऊर ऊ भर्ती थीं. उन्हीं को देखकर ऊ दुनो आ रहा था. रात का दस बजा था. सास बोलीं कि गाड़ी ले जाइए. मगर ऊ बाईक से चल दिया.पीछे दुलहिन बैठी थीं. बाईक का चाल बहुत तेज नहीं था. ऊ चलएबो इस्पीडोमीटर देख कर करता है. अचानक सामने एगो बच्चा साइकिल से फिसल कर गिर गया. उसको बचाने के लिए, हमरा भाई जइसहीं ब्रेक लगाया कि वहाँ बालू पर उसका बाईक भी फिसल गया.
भाई एक तरफ था, अऊर दुलहिन सड़क पर माथा के बल गिरी. अऊर जब तक भाई उनको देखने आए, तब तक ऊ बेहोस, पूरा देह ठण्डा, अऊर नब्ज एकदम खतम. सड़क पर भीड़ जमा हो गया, अऊर भाई बेचैन. घर पर माता जी को छोड़कर कोई नहीं. अऊर उनको बोलने का मतलब उनका तबियत खराब हो जाना.
भीड़ में एगो आदमी अपना गाड़ी रोका, अऊर भाई से बोला, “आपको गाड़ी चलाना आता है त ई लीजिए हमरा गाड़ी का चाभी, अऊर इनको लेकर तुरत हस्पताल जाइए. हम आपके बाईक को सहेजने का इंतजाम करते हैं.”
हमरा भाई तब तक हमरा फुफेरा भाई को फोन करके बोला चुका था. उसको हस्पताल पहुँचने के लिए बोलकर, ऊ उसी हालत में गाड़ी चलाकर हस्पताल गया, अऊर भर्ती करवाया. ऊ आदमी को गाड़ी वापस किया. बगले में पोस्ट ऑफिस के दरबान के पास, बाईक चार दिन तक सुरक्षित रहा, जब तक हमलोग जाकर बाईक नहीं ले आए.
बिहार की राजधानी पटना के बारे में लोग कहते हैं कि वहाँ साम होने के बाद लोग घर से नहीं निकलता है. हमरे ऑफिस में बड़ा बड़ा साहेब लोग कहते हैं कि जिस आदमी का काम ठीक नहीं होगा, उसको बिहार ट्रांसफर कर दिया जाएगा, मानो बिहार न हो गया सहारा रेगिस्तान हो गया.
उसी जगह पर एक अनजान आदमी अपना चार लाख का गाड़ी, दोसरा अनजान आदमी को थमा दिया,बिना सोचे. दोसरा तरफ एगो पाँच हजार महीना कमाने वालाआदमी पचास हजार का बाईक का हिफाजत किया चार रोज तक, बिना कोनो लालच के.

मंगलवार, 8 जून 2010

हड़ताल

हमरा बेटी का सिकायत था कि हम रोज एतना फालतू बात (घर का मुर्गी दाल बराबर) लिखते रहते हैं, कभी उसका बारे में नहीं लिखे. उसका गिलहरी जेरी का कहानी याद दिलाने पर बोली कि ऊ तो ट्रेजडी था. हम हँसकर बोले कि ठीक है, कभी मौका मिलेगा त लिखेंगे. अभी पिछलका हफ्ता अपना भाई के पास छोड़ आए थे कि पढाई करेगी. उसका पैदा होने का बाद से पहिला बार एतना दिन अलग रहे थे अपना बेटी से. हमरा सिरीमती जी त चुपचाप बाथरूम में जाकर रो आती थीं, अऊर हम ई लैपटॉप में ओझराने का नाटक करते रह्ते थे.
अईसहीं एक दिन बईठे बईठे एगो कबिता बन गया, त सोचे बेटी को आने पर देखाएंगे अऊर कहेंगे कि तुमरा बारे में भी लिखे हैं हम. एकदम व्यक्तिगत कबिता है, का मालूम कईसा लगेगा आप लोग कोः

कल तक सबकुछ ठीकठाक था घर में मेरे
आज से सब हड़ताल पे हैं, ना जाने क्यूँ कर!

हर कमरे में रोशनी है, पर एक अंधेरा सा पसरा है
सारी चीज़ें दिखती हैं, पर हाथ को हाथ नहीं दिखता है
टीवी भी कमबख़्त ये बंद पड़ा है कब से
मानो ख़ाली डिब्बा रखा हुआ कोने में
स्विच भी सारे दिखते तो हैं ठीक ठाक पर
काम नहीं करते कोई, सब बंद पड़े हैं.
टीवी का रीमोट भी मुझसे खेल रहा है आँख मिचौनी
छिपा पड़ा रहता है सोफे के गद्दे के नीचे एक पल
दूजे पल बिस्तर के पास पड़ा दिखता है.
नए नए थे सारे सेल सब डाऊन हो गए इन घड़ियों के.
सारी घड़ियाँ एक साथ रुक गईं हैं कोई साज़िश करके.
कल की शाम ही झूमा को मैं छोड़ आया था चाचा के घर
अब समझा मैं क्या गुज़रा है कल के बाद से मेरे घर में

कल तक सबकुछ ठीकठाक था घर में मेरे
आज से सब हड़ताल पे हैं क्यूँ, अब समझा मैं!
   (झूमा हमरा बेटी का नाम)

शनिवार, 5 जून 2010

एक सहंसाह ने बनवा के हसीं ताजमहल...

इधर दू तीन दिन रोजी रोटी के चक्कर में तनी परेसान रहे, इसी से लिखने का मौका नहीं मिला. जबकि दिमाग में एतना अच्छा अच्छा बिचार आ रहा था कि पूछिए मत. काहे से कि जब पेट में अनाज होता है ना, त दिमाग में एक से एक बिचार आता रहता है. अऊर पेट खाली रहता है त आदमी गुलजार साहब के जईसा चाँदो मे रोटिए देखता है (कान को हाथ लगा लिए हैं), ‘चाँद सी महबूबा हो मेरी’ नहीं देखाई देता है उसको.
हमरा एगो आदत है. जब भी हम कोनो पोस्ट लिखने बईठते हैं त सबसे पहले, पिछलका पोस्ट पढकर, उसका टिप्पणी पढकर बिचार करते हैं. कहीं कोई गलती रह गया, त उसके लिए छमा माँगना भी पड़ सकता है, कोई सुझाव हुआ त उसका पालन भी करना हो सकता है. आज भी लिखने बईठे त श्री मनोज भारती का कमेंट देखकर हमरा बिचार रुक गया.
"जिसे दो जून की रोटी नसीब नहीं होती, वह कैलेंडर से भी वाकिफ़ कहां हो पाता है...फिर इतिहास तो बहुत दूर की बात हो जाती है ...आपने दो जून की रोटी को महत्व दिया और कलैंडर के महीने दिन का सुंदर प्रयोग किया है ...लेकिन जिसके लिए आप बात कर रहें हैं, उसे इसकी कोई खबर नहीं है ...कि कोई बिहारी बाबू उसके लिए इतना सोचते हैं."
हम एक बार सोचे कि अपने कमेंट बॉक्स में, चाहे मनोज भारती जी को कमेंट लिखकर जवाब दें, लेकिन तुरत हमको लगा कि कुछ बात, जवाब देने से छोटा हो जाता है. एकदम सटीक बात कहे हैं मनोज जी.
हर दिन ब्लॉग दुनिया में केतना तरह का बात, आम आदमी अऊर साधारन आदमी के बारे में लिखा जाता है. हम लोग बहुत खोज खोज कर, दिमाग पर जोर डालकर उनका दसा लिखने का कोसिस करते हैं, अऊर लिखते हैं. केतना लोग त बहुत मार्मिक कबिता भी लिख देते हैं. एक आदमी लिखता है, अऊर डेढ़ सौ लोग उसपर कमेंट करते हैं कि एकदम सजीव, मार्मिक. हमहूँ लिखे हैं केतना बार कि करेजा चीर कर रख देता है आपका अभिव्यक्ति. लेकिन सही बात है कि हम लोग के बिचार अऊर प्रतिक्रिया से अनजान, ऊ बेचारा आम आदमी अपना समस्या से जूझता रहता है, उसको त ईहो पता नहीं कि उसके बारे में कोई सोचता भी है.
आम आदमी के समस्या के बारे में भासन देकर कोई बड़ा नेता बन जाता है, लिखकर बुद्धिजीवी पत्रकार बन जाता है, कबिताई करके पद्मश्री पाने वाला कबि बन जाता है, साहित्य लिखकर ज्ञानपीठ पुरस्कार पा जाता है, फिल्म बनाकर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है और हमरे जैसे ब्लॉगर बन जाते हैं. बाकि ऊ बेचारा जो इन सबके बीच होता है, कहीं खो जाता है.
अभी कुछ दिन पहले टीवी पर एगो प्रोग्राम देखाया था ‘लिफ्ट करा दे’. एक आदमी रोड पर काम करके कुछ पैसा कमाता है, अऊर ऊ पैसा को सैकड़ों गुना करके, एगो फिलिम इस्टार आकर लाखों रुपया में बदलकर, सहर का एक बहुत गरीब अऊर जरूरतमंद आदमी को दे देता है. एगो एपिसोड में जॉन अब्राहम आए थे, अऊर केरल की एक मछुआरन को कई लाख रुपया दिए.
भगवान को साक्षी मान कर कहते हैं उस दिन हमरा आँख में आँसू आ गया. ऊ औरत को, जो एतना पईसा जिन्नगी में नहीं देखी थी, अऊर जिसका जिन्नगी बदलने जा रहा था, पईसा मिलने का कोनो खुसी नहीं था. उसके आँख में अपना गरीबी के लिए मिलने वाला लाख रुपया का भीख से जन्मा सरम का आँसू था. जब उसको बोलने के लिए कहा गया त ऊ बोल नहीं सकी. उधर उसका आँख से लोर (आँसू) गिर रहा था, इधर हमरा.उसके बाद हम कभी ऊ प्रोग्राम नहीं देखे.
तकषी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास ‘चेम्मीन’ की मछुआरिन हमरे सामने थी, अऊर हमरे लिए ऊ सीता मईया के समान थी उस समय, जो जमीन में माथा गड़ाए सोच रही थी कि जमीन फटे अऊर ऊ समा जाए उसमें.
मनोज जी अच्छा है कि ऊ लोग हमरा ब्लॉग नहीं पढता है. नहीं त सिकायत करता कि

एक सहंसाह ने बनवा के हसीं ताज महल
हम गरीबों के मोहब्बत का उड़ाया है मजाक.

मंगलवार, 1 जून 2010

गूगल भी हुआ लाजवाब !!!


आज अचानके लिखने बईठे त एगो बुझौवल दिमाग में आ गया. तनी आप लोग भी कोसिस करके देखिए, बूझ पाते हैं कि नहीं. कलेंडर का कौन तारीख, साल का 365 दिन में भी नहीं बदलता है? अब आप कहिएगा कि हम फालतू में गप्प हाँक रहे हैं. ई कोनो पहेली हुआ, ई मजाक होगा कोनो. लेकिन जब हम सीरिअस बात करते हैं त एकदम सीरिअसली करते हैं.
चलिए आजे का तारीख पर बात सुरू करते हैं. आज दू जून है. अब इसमें नया का है. ठीके बात है, एक के बाद दू आता है, अऊर मई के बाद जून. आपलोग में से कुछ लोग बिचारेंगे, त गूगल में 2 जून टाइप करके के खोजने का भी कोसिस करेंगे. गूगलवो कम बदमास नहीं है, का मालूम केतना पेज देखाएगा, एगो मामूली बात के लिए.
दू जून के दिन महारानी एलिज़बेथ द्वितीय इंग्लैंड के सिंहासन पर बैठी थीं. अऊर एही दू जून के दिन लाल बहादुर शास्त्री जी भारत के परधान मंत्री के गद्दी पर बइठे थे. अइसहीं केतना घटना हुआ होगा 2 जून के दिन, जिसका हम लोग को न खबर है, न खबर रखने का कोनो जरूरत है.
अब आप लोग फिर बेसबर होले जा रहे हैं कि हम खाली मदारी का मजमा लगाकर, बिना मतलब का बात किए जा रहे हैं, अऊर सवाल का जवबवा देइये नहीं रहे हैं. त भाई बहिन लोग, तनी अपना दिमाग पर जोर डालिए, अंतिम में त हम बतइबे करेंगे.
चलिए, इसका कबल कि आप लोग भाग जाइए, हम बताइए देते हैं. ऊ तारीख जो साल का पूरा 365 दिन कलेंडर में रहता है, अऊर दिन, महीना बदलने से भी नहीं बदलता है ऊ है ‘दू जून’. सबूतो देना पड़ेगा, नहीं त आप लोग पढ़ल लिखल लोग मानिएगा थोड़े हमरा बात.
ई दू जून का खातिर दुनिया में एतना भाग दौड़ मचा रहता है. लोग काम करने जाता है. घर बार छोड़कर इधर उधर भटकता रहता है. न दिन, न महीना... साल का 365 दिन, बस दू जून के लिए. हाँ, कुछ लोग दू जून का रोटी से ही खुस नहीं रहता है, ऊ लोग सारा जिन्नगी भागता रहता है.
कुछ लोग अइसा भी है देस में जिसको दू जून का रोटी भी नसीब नहीं. हम भी एतना भासन इसी लिए दे रहे हैं कि हमरा पेट में दू जून का रोटी है, अऊर 365 दिन के खातिर भी दू जून का इंतजाम है. सोचते हैं कि साल में आज का दिन केतना अच्छा है कि आधा रोटी खाने वाला आदमी भी ‘दू जून’ का रोटी खाया है कह सकता है ..काहे कि आज ‘दू जून’ जो है. अऊर ई दू जून गूगलवो को पता नहीं है, गरीब का दू जून का रोटी गूगल के खोज से भी बाहर है!