गुरुवार, 30 सितंबर 2010

ग़ज़ल

आदरणीय सुभाष राय जी  साखी पर जो सम्मान दिए, उसका अंजाम इ हो गया है की हम भी ग़ज़ल लिखने लग गए. असल में एगो परिचर्चा में ऐसा बाते निकल गया कि ग़ज़ल बन गया. पुराना लोग कहते हैं कि ग़ज़ल गुफ्तगू का दोसरा रूप है. 
एही से पहिले आदरणीय तिलक राज कपूर जी एगो ग़ज़ल लिख दिए. अब हम उनका पदचिह्न पर चलकर एहां तक पहुंचे हैं. देखिये का होता है अंजाम: 

ख़ुश्क हैं आँसू, वो अब रोता नहीं .
दर्द क्यों इन्साँ को अब होता नहीं.

तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
हम नहीं जाते, हमें  न्यौता नहीं.

सिर पकड़ होरी है बैठा खेत में,
है धरा बंजर, उसे जोता नहीं.

जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
फूटता कविता का अब सोता नहीं.

हर तरफ उगने लगे हैं अब बबूल
आम मीठे कोई अब बोता नहीं.

काला धन, काली कमाई, उजले तन
हाथ का यह मैल, वह धोता नहीं.

चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं.

अब 'सलिल' सम्वेदना के स्वर कहाँ
धमनियों में रक्त भी होता नहीं.

सोमवार, 27 सितंबर 2010

एक (अ)हिंदी प्रेम

सितम्बर महीना, माने सरकारी ऑफिस में राजभासा समारोह का महीना. ई महीना में सब सरकारी ऑफिस में राजभासा कार्यक्रम का धूम देखने लायक होता है . हमरे ऑफिस में भी इस महीना में हिंदी मुहावरा प्रतियोगिता, वर्ग पहेली, अंताक्षरी, वाद विवाद, निबंध लेखन, आशु भाषण और न जाने केतना प्रतियोगिता पूरा महीना चलता रहता है अऊर सबसे बड़ा आयोजन होता है 14 सितम्बर को, अंचल कार्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ. सच पूछिए त साल के एगारह महीना में चाहे जो भी हालत हो, ई महीना में त लोग का जोस देखकर बुझाता है कि बस अब कल से सब काम हिंदी में होने लगेगा. लेकिन सितंबर महीना खतम होते ही, हिंदी के काम पर अईसा मोहर लग जाता है जईसा रजिस्ट्री का मोहर लगने के बाद जुम्मन ने खाला की खातिरदारियों पर लगा दिया था.

हमसे जेतना होता है, हम सालों भर करते रहते हैं. चुपचाप बिना किसी फल का आसा किए. इस मामले में हम गीता का बात मानते हैं. अपना तरफ से स्पस्ट कर दें कि गीता हमरी राजभासा अधिकारी का नाम नहीं है, हम त उस गीता का बारे में कह रहे हैं, जिसका एक स्लोक हर कोई जहाँ मर्जी होता है वहीं कोट कर देता है अऊर जना देता है कि हम भी गीता पढे हैं. खैर, जब हम कलकत्ता में पोस्टेड थे, तब तनी आराम था. काहे कि ऊ “ग” क्षेत्र में आता था, यानि अहिंदी भासी क्षेत्र. मतलब कम से कम काम - जादा से जादा नाम.

कभी कभी आस्चर्य होता था कि हिंदी भासी प्रदेस, बिहार के बगल में होने पर भी बंगाल का लोग हिंदी के मामला में “ग” क्षेत्र में है. जबकि कमाल देखिए, बंगाल का अनगिनत सब्द बिहार के बोली में रचा बसा हुआ है. खैर ई सब पर जादा दिमाग नहीं लगाते हुए हम अपना काम में लग गए. हमरा पोस्टिंग बिदेस बिभाग में था, इसलिए हिंदी में काम करने का सम्भावना नहिंए के बराबर था. तो भी हम पहिला काम ई किए कि अखबार वाले को बोलकर हिंदी का अखबार लगवा लिए ऑफिस में.

अब रोज सबेरे हिंदी का समाचार पत्र हमरे सामने रख दिया जाता था. जब पूरा ऑफिस बंगाल का परम्परा के अनुसार सुबह सुबह मुख्य समाचार पर बांग्ला में बहस कर रहा होता था, हम चुपचाप हिंदी का हेडलाईन पढकर अपना काम में लग जाते थे. खाने के समय में पाँच मिनट का समय निकाल कर वर्ग पहेली हल करते और इंतज़ार करते अगला दिन के अखबार का, ताकि जवाब देख सकें.

हमारा हिंदी प्रेम चलता रहा. कोई बाधा नहीं कहीं से भी, मगर प्रोत्साहन जैसा भी कुछ नहीं देखाई दिया. तीन महीना बाद सितम्बर आ गया. हम पहिले ही बता दिए अपने अंचल कार्यालय को कि हम हिंदी का ज्ञान रखते हैं अऊर इस साल हिंदी भासी वर्ग में सब प्रतियोगिता में हम हिस्सा लेंगे, इसलिए हमको समय पर खबर कर दिया जाए. लोग चौंक गया कि बिदेस बिभाग में ई कौन पागल आया है, अऊर जब पता चला त सब हँसा कि बिहारी आदमी को बोलने त ठीक से आता नहीं है, प्रतियोगिता में कहाँ से हिस्सा लेगा.

बहुत जल्दी सारा उम्मीद पर पानी फिर गया. हमरे नहीं, उनके. उस साल सब प्रतियोगिता में हिंदी भासी वर्ग में हम प्रथम आए. पिछला कई साल के चैम्पियन लोग हमसे बहुत पीछे रह गए. अब त हमरे ऑफिस में हमरा इज्जत तनी बढ गया. बॉस का सीना भी चौड़ा हो गया, जब सब ईनाम उनके ऑफिस को मिला.

अब हमरा हिंदी का समाचार पत्र का भी इज्जत तनी बढ गया था. कुछ लोग (दक्षिण भारतीय सहकर्मी गण को छोड़कर) कोसिस करने लगा था कम से कम मुख्य समाचार पढने का. हमरा काम ऐसा था कि सुबह नौ बजे से साम साढे चार बजे तक एकदम फुर्सत नहीं होता था. ऊ दिन चार बजे एक युवा कर्मचारी, जिसका नाम सुकल्प भट्टाचार्य्य था, हमरे पास आया अऊर बोला, “ भर्मा दा! ई पेपर हम पढने का लिए ले सकता है?” (बंगाल में अंगरेजी का “वी” अक्षर से लिखा जाने वाला सब्द का उच्चारन “भ” किया जाता है, इसलिए हमको वर्मा न कहके भर्मा बोलता था सब.)

“अरे सुकल्पो! ऑफिस का कागज (कागज माने अखबार) है, ले जाओ.”

सुकल्पो अख़बार लेकर चला गया. पौने पाँच बजे ऊ फिर हमरे पास आया अऊर बोला, “भर्मा दा! एक्टू सहायता कीजिए.” उसका बांग्ला मिला हुआ हिंदी सुनकर हमको बहुत अच्छा लगा.

“बोलो.”

“एई कागज में हम कुछ वर्ड को अंडरलाईन किया है. आप हमको उसका माने बता दीजिए.”

पहिले त हमको लगा कि ऊ मजाक कर रहा है. मगर जब उसका चेहरा पर हमको सीरियसनेस देखाई दिया, त हम उसको सब सब्द का माने अंगरेजी में समझा दिए. ऊ समझ गया था, ई बताने के लिए उ हमको वाक्य बना कर बताया कि सब्द का मतलब का है. हमको खुसी हुआ.

उसके बाद त हर दिन का रूटीन बन गया कि ऊ साम को हमरे पास आकर हमसे नया सब्द का मतलब सीखता अऊर पुराना सब्द आने से बताता कि ई सब्द हम उसको दू दिन पहिले बताए थे. देखते देखते उस लड़का का सब्दकोस एतना अच्छा हो गया कि उसको हमरे पास आने का जरूरत नहीं रहा. मगर जब कभी उसको कोई कठिन सब्द नजर आता था, तो उ हमसे पूछता अऊर सब्द का अर्थ याद भी रखता था.

एक साल बीत गया. अऊर अगला साल सितम्बर महीना में जो हुआ ऊ कोई सस्पेंस नहीं है. हिंदी माह का सब प्रतियोगिता में से अधिकतर में अहिंदी भासी वर्ग में सुकल्प भट्टाचार्य्य प्रथम या द्वितीय स्थान पर रहा. उसका रोज का आधा घण्टा अभ्यास का रस्सी हमारे ऑफिस के इतिहास के पत्थर पर हिंदी का अमिट निसान छोड़ गया.

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

पति,पत्नी और वो!!!

हम तब सातवाँ या आठवाँ क्लास में पढते रहे होंगे. एतवार का दिन था अऊर जाड़ा का मौसम. हमरे घर के सामने हम लोग का खाली जमीन था. दादा जी जानबूझकर ऊ जमीन में न तो कोई दीवाल बनवाए थे, न कोई घेराबंदी किए थे. जमीन के बाहर से सरकारी गली दक्खिन तरफ वाला मोहल्ला को उत्तर तरफ मेन रोड से जोड़ता था. गली के दोसरा तरफ गरीब लोग का कच्चा मकान था, जो लोग छोटा मोटा काम करके अपना गुजर बसर करता था. जाड़ा के दिन में सब लोग हमरे मैदान में धूप सेंकता था.हम लोग भी कोई भेद भाव नहीं रखते थे, अऊर ऊ लोग को भी चाचा चाची कहकर बुलाते थे.

मैदान का था, पूरा बाइस्कोप था. हम लोग हाता से बईठे बईठे देख सकते थे कि रामसरन चचा बीमार हैं. आज तनी ठीक तबीयत हुआ है त उसको लोग धूप में बईठाया है. उनका बड़का बेटा बालेसर देह दबा रहा है अऊर लगता है मने मन गुसिया रहा है कि उसका दोस्त सब खेल रहा है अऊर उसको बाप का सेवा करने का सजा मिल गया. मीना अऊर चम्पा दुनों मिलकर जोर जोर से गा गाकर ‘क’ से कबूतर, ‘ख’ से खरगोस पढ रही है.रामरती चाची अचार लाकर धूप देखाने के लिए कोना में मेहदी के झाड़ के पास रख गई, ओहाँ सबसे जादा देर तक धूप रहता है.

जगदीसवा को तो बस लट्टू खेलने से फुर्सत नहीं. चार गो लड़का को एकट्ठा करके लट्टू खेलने में मस्त हो जाता है. बाकी एगो खासियत है उसका कि उसका लट्टू कभी फँसता नहीं है. हमको तो केतना बार मुँह में चोट लगा है. असल में लट्टू रस्सी में फँसने के बाद सीधा मुँह पर आता है. जगदिसवा हमको लट्टू हाथ पर लेना सिखाया था.

राममूर्ति का निमकी (नमकीन) अऊर चटनी का स्वाद हमको एतना उमर होने पर भी याद है. असल में ऊ लोग दोकानदारी कम दुनियादारी जादा करते थे. उनको पता है कि हमरे घर में लोग उनका निमकी पसंद है, तो अपना बेटा को बोलेंगे कि रजुआ जाकर दुलहिन (हमरी माँ) को दे आओ. कमाल तो ई था कि पैसा का कोनो बाते नहीं. जब माता जी पईसा पूछीं ऊ पईसा बोले, पईसा दे दिया गया अऊर हिसाब बराबर. कोई भेरीफिकेसन नहीं, कोई बही खाता नहीं.

ओहीं मैदान के कोना में मोटकी मछली वाली (एही नाम से हमलोग जानते थे, हमलोग के घर में बनता नहीं था) रोहू ले, हिल्सा ले, पोठिया ले का आवाज लगाकर बईठ जाती थी. देखते देखते पूरा टोकरी साफ. बचा खुचा टुकड़ा भुरवा कुत्ता को देकर ऊ अपना टोकरी वहीं ननकी के घर के पास लगा हुआ सरकारी नल में (तब उसमें पानी भी आता था) धोकर निकल जाती थी.

बस एही सब खेला दिन भर चलता था. हम लोग चटाई बिछाकर पढाई करते थे अऊर खेल भी. बगल में ट्रांजिस्टर पर गाना बजता रहता अऊर हम लोग जोर जोर से गाना भी गाते रहते. ऊ एतवार के दिन हमरे पिता जी आराम कुर्सी पर बैठकर अखबार पढ रहे थे अऊर गाना के ऊपर बीच बीच में अपना एक्सपर्ट कमेंट देते जा रहे थे.

“इस गाने के समय शंकर जयकिशन और लता मंगेशकर के बीच झगड़ा हो गया था, इसलिए यह गाना सुमन कल्याणपुर ने गाया है. इस गाने की धुन शंकर ने बनाई है, क्योंकि शारदा से वही गवाते थे.” हमलोग उनके बात को मन ही मन रिकॉर्ड करते जाते थे.

अचानक जोर का हल्ला गुल्ला सुनाई दिया. देखे कि दक्खिन वाला गली से एगो आदमी अपना औरत को बाल से पकड़कर खींचता हुआ मैदान में ले आया अऊर थप्पड़ थप्पड़ से मारने लगा. ऊ औरत बचने का कोसिस कर रही थी, मगर आदमी उसको कसकर पकड़ कर घसीट रहा था अऊर पीट रहा था. औरत रोए जा रही थी, मगर वहाँ खड़ा कोई भी आदमी या औरत उसका बीच बचाव करने नहीं आ रहा था आगे.

हमरे पिता जी आव देखे न ताव, मैदान में पहुँचकरआगे, उस औरत को अलग किए अऊर खींचकर एक झापड़ उस आदमी को मारे. एतना जोर का तमाचा था कि पूरा मैदान उसका आवाज से खामोस हो गया. मगर उसके बाद जो हुआ उसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता.

ऊ औरत हमरे पिता जी का हाथ पकड़ ली अऊर चिल्लाकर बोली, “ई हमरा घर का लड़ाई है, आप कऊन होते हैं इसमें पड़ने वाले. ई हमरा आदमी है, हमको मार दे कि काट कर गंगा जी में बहा दे, आपको का. खबरदार जो आप हमरे आदमी पर हाथ उठाए!!”

पिता जी को काटो तो खून नहीं.

शनिवार, 18 सितंबर 2010

लाइट ले यार!!

ई तेरह का पहाड़ा अच्छा खासा आदमी का बेइज्जती करने के लिए काफी है. अपना बचवो अगर आकर पूछ लेता है कि “थर्टीन एट्ज़ आर” केतना होता है, त मन पहिले त उसका अनुबाद करता है, तब समझता है कि बचवा तेरह अठे केतना होता है, ई पूछ रहा है. मगर असल परेसानी इसके बाद सुरू होता है, जब पता चलता है कि पहाड़ा ससुर तेरह का है. तब सब बाप ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का बिज्ञापन वाला बाप के जईसा उल्टा सीधा जवाब देने लगता है, नहीं त मुँह लुकाने लगता है.

मगर चार साल शारजाह में रहने के बाद देख लिए कि एक से एक अनपढ हिंदुस्तानी (बहुत बड़ा आबादी है कम पढा लिखा अऊर अनपढ लोग का ओहाँ) को भी अऊर कुछ आवे चाहे नहीं आवे, तेरह का पहाड़ा कण्ठस्थ रहता है. एक कप चाय पियेगा कोनो कैफेटेरिआ में, पचास फिल्स (यू.ए.ई. का 100 फिल्स एक दिरहम के बराबर होता है) का, अऊर मने मन पहाड़ा पढेगा, तेरह पंजे पैंसठ माने साढे छः रुपया का चाय, 10 दिरहम का सामान खरीदेगा त सोचेगा एक सौ तीस रुपया का सामान हो गया. अब समझ में आया तेरह का पहाड़ा का चक्कर. दरसल वहाँ का एक दिरहम भारत का तेरह रुपया के बराबर होता था उस समय.

ओहाँ आम हिंदुस्तानी कमाता तो दिरहम में है, मगर खर्चा करते समय तेरह का पहाड़ा पढकर रुपया में खर्चा का हिसाब करता है अऊर मन ही मन बहुत दुखी होता है कि बहुत खर्चा हो गया. ओहाँ पर काफी बड़ा तबका मजदूर लोग का या साधारन काम करने वाला का है. एही में से कोई तनी बेसी पढा लिखा आदमी, जो बाकी लोग से अच्छा ओहदा पर होता है अऊर तनी बेसी कमाता है, अपने को बाकी से सुपीरियर बुझता है. उसका चेहरा पर एगो अजीब तरह का चमक अऊर घमंड देखाई देगा. बात बात में पइसा को लात मारेगा, मगर मने मन तेरह का पहाड़ा जरूर पढेगा. हो सका त दू तीन लाइन अंगरेजी हर बात में बोलता हुआ देखाई देगा अऊर सकल से बहुत बिजी नजर आएगा.

जुमा यानि सुकरवार का दिन हमरे लिए बहुत बिजी दिन होता था. उस दिन पूरा यू.ए.ई. में छुट्टी, मगर हमरे लिए कोई छुट्टी नहीं, उल्टे सब दिन से जादा काम. बहुत भीड़ ऑफिस में अऊर लोग का ताँता, जईसे सावन में भोले नाथ पर जल ढरा रहा है.

ऑफिस में हमरा सामने से पूरा हॉल का दृश्य देखाई देता था. मगर हमरे पास समय कहाँ कि हम देख सकें. काम के साथ साथ लोग का सिकायत, नमस्कार अऊर प्रनाम सुनते हुए भी हमरा माथा झुकले रहता था. एक रोज ओही भीड़ में लाइन के बीच से एगो आदमी का मोबाइल बजा. हमको उसके आवाज से कोनो डिस्त्टर्बेंस नहीं हुआ, बल्कि ऊ बतियाने वाले का बात सुनकर हँसी आया अऊर ध्यान भी चला गया उसपर. ऊ किसीको बोल रहा था, “अभी हम थोड़ा देरीमें बात करेंगे. अभी हम ट्रैफिक जाम में फँसे हैं.” ऊ ई बात एतना जोर से बोला कि हमरा ध्यान उसके तरफ चला गया. हमहूँ सोचे कि बताओ तो ई आदमी केतना चिल्लाकर झूठ बोल रहा है. हमको तनी हँसी भी आया, उसके तरफ देखे अऊर काम में लग गए.

ऊ आदमी कैसियर के पास पइसा जमा किया. हमरे पास आया त उसका कागज पर दस्तख़त कर दिए अऊर ऊ चला गया. भीड़ भाड़ ओइसहीं चल रहा था. देखे का कि आधा घंटा के अंदर ऊ आदमी हमरे सामने फिर प्रकट हो गया. हम पूछे, “क्या बात है?”

“सर! मेरा मोबाइल कहीं छूटा है यहाँ?”

“अभी तो थोड़ी देर पहले आप किसी को बता रहे थे कि आप ट्रैफिक में फँसे हैं. और उसके बाद आपने मोबाइल अपने बगल में खड़े अपने दोस्त के पॉकेट में रखा था. पूछकर देखिए अपने दोस्त से.”

“दोस्त?? मैं तो अकेला आया था यहाँ.”

“ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन आपकी बात सुनकर जब मैंने आपकी तरफ देखा था तो आपको बात ख़तम करके अपना फोन, बगल वाले अदमी की जेब में रखते हुए देखा था मैंने.”

ऊ अदमी माथा पीट रहा था अपना, बगल में खड़ा लोग हँस रहा था उसका बेकूफ़ी पर अऊर हम मने मन सोच रहे थे कि ई आदमी के आँख पर पैसा का कइसा पट्टी बँधा है कि इसको ई भी देखाई नहीं दे रहा था कि ऊ मोबाइल फोन दोसरा आदमी के जेब में डाल रहा है! मनसिक सम्बेदना के साथ साथ, भौतिक सम्बेदना भी समाप्त कि अपना छुवन भी नहीं पता चला!! जावेद अख़्तर का एगो शेर याद आ गया

गिन गिन के सिक्के,हाथ मेरा खुरदुरा हुआ
जाती रही वो लम्स की नरमी, बुरा हुआ.
                                            (लम्सःस्पर्श)

खाना खाने के टाइम अगर अंधेरा हो जाए त हाथ का खाना मुँह के जगह नाक में त नहिंए जाता है, मगर अहंकार का अंधकार में आदमी को अपना हाथ से अपना मोबाइल रखने के लिए अपना पॉकिट का भी पता नहीं चलता है !!

हम त कुछ भी सांत्वना नहीं दे पाए उसको. बस एतने कह सके, “ अरे! कौन सी बड़ी चीज़ थी, दूसरी ले लेना,फिलहाल तो लाइट ले यार!!”


सोमवार, 13 सितंबर 2010

द ट्रेन...

अकेले सफर करने में आदमी थोड़ा निस्चिंत रहता है. सामान कम, बच्चा को सम्भालने का झंझट नहीं अऊर सबसे बड़ा आराम कि सीट कोनो मिल जाए परेसानी नहीं. नहीं त सिरीमती जी को नीचे वाला सीट चाहिए, बेटी को बीच वाला अऊर हमरे लिए जऊन बच गया सो. मगर अकेले... ई सबसे मुक्त होकर बिना कोनो सफरिंग के सफर.

हमको मिल गया पहिला वाला साइड लोअर सीट. हर दस पाँच मिनिट पर टॉयलेट आने जाने वाला लोग बीच का दरवाजा का खोलकर चला जाता था, अऊर ऊ अपने आप बंद होता था धड़ाम से. हम समझ गए कि रात भर एही चलने वाला है. रेलवे का तकिया से कान बंद कर के सोना पड़ेगा. एक नजर पड़ोस में डाले, त देखे कि बगल में एगो आदमी पचीस छब्बीस साल का, उसके साथ उसकी गर्भवती पत्नी अऊर एक पैंतीस चालीस की औरत. उसकी पत्नी का पेट देखकर समझ में आया गया कि बस प्रसव का दिन करीब है. गोस्सा भी आया कि ऐसा टाइम में काहे सफर कर रहा है, लेकिन रहा होगा कोनो मजबूरी, कौन जाने.


       ( चित्र साभारः mikophotography)
आधा रात के बाद नींद गहराया होगा कि हमको कराहने का आवाज सुनाई दिया. घबरा कर हम उठ कर बईठ गए. सामने पर्दा लगा हुआ था अऊर उसी के पीछे से कराहने का आवाज आ रहा था. अब हमरे मन में भी परिस्थिति को देखकर डर समाने लगा. हम उठकर पूछे उस आदमी से लेकिन ऊ बोला कि घबराने का कोनो बात नहीं है.

उसके बाद हम सो नहीं सके, काहे कि उसका कराहना बढता जा रहा था अऊर पूरा डिब्बा में खाली हम जाग रहे थे. सब लोग अपना एयर कंडीशंड बर्थ पर तकिया से कान दबाकर सोया रहा. अब हमरा घबराहट गोस्सा में बदल गया. हम ऊ आदमी से बोले, “ अईसा हालत में आप काहे लेकर जा रहे हैं दिल्ली. घर में लोग नहीं है कि घर से निकाल दिया है?”

“नहीं, ई बात नहीं है. हम फौज में हैं, दिल्ली में फौजी अस्पताल में सब मुफ्त में हो जाएगा.”

“पागल कहीं का, मुफ्ते में डिलिभरी करवाना था त पटना में दानापुर मिलिट्री हॉस्पीटल नहीं था!!”

उसके बाद त हमरा गोस्सा बढा जा रहा था. उ आदमी भी परेसान बुझाया. सबसे जादा परेसानी ई था कि ऊ औरत का दर्द अऊर बेचैनी बढ़ रहा था. सुबह के टाइम में लोग का नींद भी बहुत गाढा हो गया. गाड़ी सीधा दिल्ली रुकने वाला अऊर हमलोग अभी टुंडला से निकले थे. लग रहा था कि ई औरत दिल्ली तक जाने का हालत में नहीं है. उसका चेहरा एकदम पीला होता जा रहा था.

अब हम उठे अऊर पहिला बार अपना पिताजी का दिया हुआ रेलवे ज्ञान इस्तेमाल किए. कण्डक्टर से रिजर्वेसन का चार्ट लेकर सबसे पहिले देखे कि कोनो डॉक्टर सफर कर रहा है कि नहीं. देखे कि दू डिब्बा आगे एगो डॉक्टर था. हम भागे, मन ही मन एही मनाते हुए कि कहीं ऊ पीएच. डी. वाला न हो. खैर ऊ डॉक्टर को हम बिनती किए अऊर समझाए. सीरियस समझ कर ऊ भी नहीं आना चाहा. मगर हमरा बात सुनकर अऊर अनजान आदमी को परेसान देखकर ऊ आया, नब्ज देखा अऊर बोला कि देरी करने से परेसानी हो सकता है. अऊर केस अईसा है कि बिना इंतजाम के कुछ भी नहीं किया जा सकता है.

हम उसको धन्यवाद दिए अऊर क्ण्डक्टर को बोले की वॉकी टॉकी पर गाड़ी के इंचार्ज गार्ड से बात करवाओ. ऊ बोला नहीं हो पाएगा. मगर हमरे अन्दर पता नहीं कहाँ से अजीब सक्ति समा गया था. हम बोले, “ नहीं होगा त तुम सब जेल जाओगे. हमको सिखाते हो. हमरे पिताजी एही सेक्सन पर काम करते थे अऊर हमको सब पता है.”

ऊ घबराया कि हमरा बात से संतुष्ट हुआ, मगर हमको वॉकी टॉकी लाकर पकड़ा दिया. हम गार्ड से बोले, “सर यहाँ जिंदगी मौत का सवाल है. आपको अलीगढ़ में गाड़ी रुकवानी होगी. और वहाँ मेडिकल युनिट को प्लेट्फॉर्म पर रहने को कहना होगा.”

“मैं ख़बर करता हूँ. मगर आपको सिर्फ दो मिनट का समय मिलेगा.”

“धन्यवाद सर! दो मिनट बहुत होते हैं.”

ऊ फौजी हमरा मुँह देख रहा था, औरत चीख रही थी, मगर अब चीख का आवाज़ कुछ कम हो गया .हम उस आदमी को कहे कि सामान दरवाजा पर लेकर जाओ. गाड़ी रुकते के साथ सामान लेकर अपनी दीदी (जो औरत साथ में थी) को उतरने को बोलो, अगिला दरवाजा से. ई दरवाजा से हम दुनो मिलकर इनको बिछावन समेत उठाकर नीचे ले जाएंगे. तब तक स्ट्रेचर भी आ जाएगा.

अलीगढ़ इस्टेसन के पहिले ही जब गाड़ी में झटका लगा त हम समझ गए कि गाड़ी मेन लाइन से लूप लाइन में आ गया है यानि प्लेटफारम पर. भागकर देखे त आधा दर्जन नर्स का टीम स्ट्रेचर लेकर खड़ा था. ऊ आदमी औरत का सिरहाना पकड़ा अऊर हम दुनो गोड़ के तरफ से धीरे से सहारा देकर उठाए.

संजोग देखिए, दरवाजा तक पहुँचते पहुँचते हमको नबजात बच्चा का रोने का आवाज सुनाई दिया. तब तक हम स्ट्रेचर पर उस औरत को उतार चुके थे. उसका चीख तेज होकर बंद हो गया था. हम अबाक पायदान पर खड़े थे. गाड़ी चलने लगा. अचानक ऊ औरत स्ट्रेचर पर से करवट बदली अऊर हमरे तरफ घूमकर देखी. उसका आँख से मोटा मोटा लोर टपक रहा था.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

देवदूत????????

एगो बच्चा. पाँच साल का. माँ के गोदी में, डॉक्टर के केबिन में. डॉक्टर जइसहीं बच्चा को स्टेथस्कोप लगाने चले कि ऊ बच्चा आला पकड़ लिया अऊर खींचकर अपना हाथ में ले लिया.मोटा ताजा तंदरुस्त बच्चा के हाथ से जब उसकी माँ आला छुड़ाने लगी,त बच्चा खूब जोर जोर से रोने लगा. एतना जोर से कि उसका पूरा देह काँप रहा था अऊर मुँह लाल हो गया था.आवाज एतना जोर कि आसपास का पूरा इस्टाफ जमा हो गया.सब लोग बच्चा के हाथ से स्टेथस्कोप छीनने लगा अऊर बच्चा के माँ को डाँटने लगा. माए बेचारी अपने परेसान. मगर ओही घड़ी डॉक्टर साहब सब लोग को डाँट कर बोले, “आपलोग बच्चे को छोड़ दीजिए और दूसरा स्टेथस्कोप लेते आइए.” बच्चा चुप हो गया. तब डॉक्टर बच्चा को देखने के बाद बोले, “अब ये मुझको दे दो, बाकी लोगोंको भी देखना है ना.” उनके आवाज में जादू था. बच्चा समझा चाहे नहीं, मगर चुप हो गया अऊर आला पकड़ा दिया.

डॉक्टर साहब चुपचाप पर्चा पर दवाई लिखने लगे. लगबे नहीं किया कि अभी दू मिनिट पहिले एतना बड़ा तूफान आया था ई कमरा में.अगिला पेसेन्ट आया अऊर ऊ औरत अपना बच्चा को लेकर डॉक्टर साहब को धन्यवाद देकर बाहर निकल गई. ऊ गोलमटोल, सुंदर तंदरुस्त बच्चा का नाम था मून. चाँद सा सुंदर था, एही से उसका ई नाम रखाया था, हमरा संझला भाई.

++++
एगो पंदरह साल की बच्ची, हस्पताल के आई.सी.यू. में आँख बंद किए पड़ी है. सुतल अऊर बेहोस आदमी के साथ सबसे बड़ा दिक्कत एही है कि उसका तकलीफ का अंदाजा नहीं लगता है. सुंदर गोल चेहरा अऊर गोरा रंग... देखने से लगता था कि कोनो गुड़िया सुतल है बेड पर. का मालूम केतना तार अऊर एलेक्ट्रोड उसके देह में लगा हुआ है.सामने मॉनिटर पर लोग बाहर सीसा से देखकर एही अंदाजा लगाने का कोसिस कर रहा है कि ऊ केतना खतरा से बाहर है अऊर केतना सीरियस है.

अचानक मॉनिटर का सकल बिगड़ने लगता है अऊर ग्राफ सब सीधा लाइन में चलने लगता है, नब्ज देखाने वाला मसीन में भी नम्बर कम होने लगता है. सबको एही लगता है कि पाँच साल से जो दिन का इंतज़ार सब लोग कर रहा था, ऊ दिन आ गया है. लेकिन आदमी एतना आसानी से हार कहाँ मानता है, अऊर खास कर तब जब जिन्न्गी अऊर मौत का सवाल हो.

सब लोग भागा डॉक्टर को देखने. सुबह का नौ बज रहा था, अऊर सीनियर डॉक्टर को आठ बजे आना था… जूनियर डॉक्टर से जो बना सो किया. अऊर देखते देखते सबके सामने ऊ बच्ची कभी नहीं खतम होने वाला नींद में सो गई. डॉक्टर साहब एगारह बजे आए. अऊर सब लोग जब गोस्सा अऊर दुःख में उनको ओलाहना देने लगा, त ऊ लास जब्त कर लिए. बोले कि सब आदमी को पुलिस के हवाले करेंगे, हंगामा करने के कारन अऊर लास नहीं मिलेगा.

खैर घंटों बाद लास मिला तब जाकर माँ बाप अऊर रिस्तेदार लोग का रोलाई छूटा. सबको पता था कि इस बच्ची का एतने दिन का जिन्नगी लिखा है, मगर ई जानने से दुःख कम त नहिंए होता है. ऊ बचिया हृषिकेस मुखर्जी का मिली नहीं थी, उसका नाम था जिनी.. हमरे चाचा जी का सबसे छोटी बेटी.

दुनो घटना पटना के मेडिकल कॉलेज हस्पताल का है. हमरे नोएडा में भी एगो डॉक्टर साहब हैं. काली मंदिर के ट्रस्ट के क्लिनिक में मरीज देखते हैं, मुफ्त. बीमार पड़ने पर जब भी उनके पास हम जाते हैं, तो पहिले पैर छूते हैं, अऊर जब ऊ अपना हाथ उठाकर आसिर्बाद देते हैं, त चार आना बीमारी ओही घड़ी गायब हो जाता है. अऊर जब बीमारी के कारन को लेकर डाँट लगाते हैं, त आठ आना दूर हो जाता है बीमारी.बाकी में से चार आना उनका बताया हुआ परहेज से अऊर खाली चार आना दवाई असर करता है.

अगर सच्चो भगवान आदमी को बनाया है, त जरूर डॉक्टर के रूप में, ऊ अपना दूत बहाल किया होगा कि उसके काम में कोनो गड़बड़ रह जाए, त ई लोग ठीक कर दे. लेकिन भले बिस्नु भगवान पालनहार हों, आजकल ई दूत लोग त लछमी जी का बात मानते हैं.


पुनश्चःई घटना याद करने का जरूरत नहीं पड़ता अगर दिव्या बहिन ई सवाल नहीं उठाती कि “आप डॉक्टर हैं या कसाई” अऊर भाई कुमार राधारमण नहीं देखाते डॉक्टरी का दूगो रूप, चिकित्सक और सम्वेदना अऊर जयपुर के डॉक्टर के चमत्कार के बारे में.

रविवार, 5 सितंबर 2010

विवेक शर्मा, भिखारी और भिखारी का ताजमहल!!

एगो बात बताएँ... ब्लॉग पढने का लत हमको “बिग अड्डा” पर विवेक शर्मा (निदेशक: फिल्म भूतनाथ और कल किसने देखा) के ब्लॉग से लगा. जिन्नगी का एतना छोटा छोटा घटना अऊर उससे मिलने वाला एतना बड़ा बड़ा संदेस.विवेक शर्मा का कहानी कहने का अंदाज बस पहिला लाइन से बाँध लेता है पढने वाले को अऊर आखिरी लाईन तक आते आते आप अवाक् रह जाते हैं, बस ऊ कहानी और संदेस के साथ.

दोसरा खासियत,अगर सचमुच ब्लॉगर और ब्लॉग पाठक के बीच का रिस्ता देखना हो तो उनका ब्लॉग पढकर देखिए.पढने के बाद कमेंट दिए बिना कोई नहीं रह पाता है और कमेंट देने के तुरत बाद उनका दोस्ताना जवाब. हफ्ता दस दिन के अंदर लगा कि रिस्ता बन गया है उनसे. जब हम अऊर चैतन्य मिलकर “सम्वेदना के स्वर” लिखना सुरू किए त बस एक अनुरोध किए विवेक शर्मा से कि हमारे ब्लॉग पर कुछ कहिए.अऊर अगला छन में उनका संदेस हमारे कमेंट बॉक्स में चिपका हुआ था.

बहुत सम्बेदनसील हैं विवेक जी.एक बार, एक घटना का जिकिर किए थे ऊ अपना पोस्ट पर. भोपाल इस्टेसन पर ऊ अपनी बहन के साथ गाड़ी का इंतजार कर रहे थे.अचानक एगो चोर,ओहीं खड़ा दोसरा आदमी का झोला लेकर भागा. ऊ आदमी भागकर चोर को पकड़ा. चोर ऊ आदमी को लात से मारकर भागना चाहा, उसको घूँसा थप्पड़ से मारा, मूँह से खून तक निकाल दिया मारकर. मगर ऊ आदमी छोड़ा नहीं चोर को. भाग गया चोर अंत में झोला फेंककर.

लोग पूछा कि का था ई झोला में. तब ऊ आदमी जवाब दिया, “कुछ नहीं! लेकिन जो है बस यही है मेरा सबकुछ!”

विवेक जी लिखे थे कि ई घटना को ऊ अपना आने वाला फिल्म “बुद्धम् शरणम् गच्छामि” में इस्तेमाल करेंगे. फिल्म जब आएगा, तब आएगा, लेकिन हमरे मन में जो कबिता बना, ऊ बतौर कमेंट हम चिपका आए वहाँ पर.

पिछला हफ्ता बहुत ब्यस्त रहे अऊर लगता है कि ई सिलसिला अभी चलेगा त ओही कबिता आज साल दू साल बाद यहाँ पोस्ट कर रहे हैं.

लोग का कहना है कि इण्टरनेट का इस्पीड, रोसनी का इस्पीड जईसा है...लेकिन “बिग अड्डा” से “ब्लॉगर” तक आने में ई कबिता को दू साल लग गया!!




भिखारी का ताजमहल

पोटली में लगे पैबंद हैं दौलत मेरी.

तेरी ये ज़िद थी इसे सिल के ही दम लेगी तू!
बूढ़ी आँखों से दिखाई तुझे कम देता था
सुई कितनी दफा उंगली में चुभी थी तेरी
उंगलियों से तेरी कितनी दफा बहा था ख़ून.
कौन सा इसमें ख़ज़ाना था गिरा जाता था
कौन सी दुनिया की दौलत थी लुटी जाती थी.

आज जब तू नहीं दुनिया में तो आता है ख़याल
दौलत-ए-दो-जहाँ से बढके पोटली है मेरी
संगेमरमर की नहीं यादगार, क्या ग़म है
सोई पैबंद के पीछे मेरी मुमताज़ महल.

पोटली में लगे पैबंद हैं दौलत मेरी.