सोमवार, 6 दिसंबर 2010

जाके बैरी सम्मुख ठाड़े, वाके जीवन को धिक्कार

पटना का पहचान तीनसे है. गंगा जी, गोलघर और गाँधी मैदान. तीनों आसपास. गाँधी मैदान के बीच में खड़ा हो जाइए, तो उत्तर के तरफ गंगा जी हैं और पच्छिम के तरफ आसमान में माथा उठाए हुए गोलघर, आधा अण्डा के आकर का बिसाल अनाजघर. पूरब साइड में दूगो सिनेमा हॉल, एलिफिस्टन (एलिफ़िन्स्टन) अऊर रीजेण्ट. एलिफिस्टन सिनेमा के छत पर लाल अऊर बुलु (नीला, ब्ल्यू) नियॉन लाईट से लिखा था फिलिप्स, रेडियो और बत्तियाँ. दुनो रंग का लाइट पारी पारी से जलता बुझता था. हमको आझो याद है कि हमरा फुफेरा भाई राकेस उसको देखकर अपना आँख खोल बंद करके लाईट से कम्पीटिसन करता था.
दुनो सिनेमा हॉल, एलिफिस्टन अऊर रीजेण्ट, का खासियत था कि इसमें लगने वाला सभे सिनेमा हिट होता था. एलिफिस्टन में नन्हा फरिस्ता” (जहाँ तक याददास्त जाता है) से लेकर सोलेतक अऊर रीजेण्ट में मेरा सायासे लेकर हम आपके हैं कौनतक. एही सिनेमा हॉल के बगल में था सोडा फाउण्टेन, सहर में एकलौता खुला होटल (बिहार में आज भी रेस्त्राँ को होटल बोलते हैं). हरा हरा घास के मैदान में, एकदम सिनेमा के जैसा, टेबुल लगाकर खुले में पूरा परिवार के साथ बईठकर खाना. हमरे चाचा का दोस्ती बड़ा छोटा सब तरह के लोग के साथ था. एही सोडा फाउण्टेन में गंगा चाचा (चाचा जी के दोस्त जो उनके साथ रोज सबेरे गंगा जी नहाने जाते थे) वेटर थे. इसलिए हमलोग का खास ख्याल रखते थे. एकदम लाट साहब वाला. अब सोडा फाउण्टेन नहीं रहा. गंगा चाचा ठीकेदारी करने लगे. मगर आज भी हमलोगों के लिए ओही इज्जत है उनके मन में, अऊर आज भी सम्बंध बना है.
गाँधी मैदान सुंदर लगबे करता था. एकदम हरा घास, साम के समय परिवार के साथ समय बिताता लोग, क्रिकेट खेलता बच्चा सब, चिनियाबादाम (मूँगफली) बेचने वाला. उत्तर पच्छिमके कोना पर टीन से घेरकर फुटबॉल मैदान बनाया हुआ था. फुटबॉल के दीवाना लोग मैच के बाद गरम गरम बहस करता हुआ निकलता था. हमरे पिता जी केतना खिस्सा सुनाते थे खेल के नसा का. एगो फुटबॉलर थे जिनके पास से बॉल छूटबे नहीं करता था अऊर मैदान में बॉल लेकर, पल भर में कोना से कोना तक चले जाते थे. उनका नाम लोग रख दिया था चिरैंया. बाद में उनकी बेटी हमरी चाची बनीं.
साम को खेलकर लौटते समय रोज हम एक जगह आकर रुक जाते थे. ठीक रीजेण्ट सिनेमा के सामने वाला मैदान में. ओहाँ पर तीन चार लोग ढोलक लेकर बईठा होता था. धोती कुर्ता पहने, माथा पर गमछा बाँधे. अऊर जोर जोर से गीत गा रहा होता था. गीत में एतना डूब जाता था तीनों कि दीन दुनिया का होस नहीं. आँख  बंद  किये, ढोलक पर थाप दे देकर एक सुर में तीनों गाता. जाड़ा के साम में भी गीत सुनकर सुनने वाला के बदन में गर्मी जाता अऊर पूरा देह जलने लगता था. आवाज का असर था, कि गाना के बोल का असर था कि गाना के धुन का असर था, कि गाने वाला के आवाज का असर था. कुल मिलाकर एगो अजीब भगवानी असर था.
 दादा जी को बताए तो बोले कि इसको आल्हा कहते हैं. गीत गाने का एगो खास सैली है. लोक गीत हर मौका के लिए अलग अलग होता है, लेकिन उसका धुन का सैली अईसा होता है कि उसको सुनकर कोई बता सकता है कि कौन अबसर का गीत है. आल्हा सुनकर तो लगता है कि पूरा बदन में आग भर गया है.
बुदेलखण्ड के महोबा इलाके में आज 800 साल बाद भी आल्हा और ऊदल का कहानी माटी माटी में बसा हुआ है. दक्षराज और देवल देवी का बड़ा बेटा आल्हा बहुत सक्तिसाली था. मगर कभी सक्ति का दुरुपयोग नहीं किया. जमाना के बारे में कहा जाता था कि
जाकि कन्या सुंदर देखी, तापर जाय धरी तलवार.
मगर आल्हा ने कभी ऐसा नहीं किया. एगो राजकुमारी मछला इनको अपने साथ भाग जाने के लिए बोली मना कर दिए. अऊर मछला रानी को तब हाथ लगाए जब बिधिवत उनसे बियाह कर लिए. सारा जीबन एक पत्नी के अलावा कोई स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखे कभी. ऊदल उनके छोटे भाई थे, उन्हीं के जईसा बीर. केतना लड़ाई लड़े, बंदी बने, आजाद हुए अऊर अंत में छल से मार दिए गए पृथ्वी राज चौहान के द्वारा. मगर उनका कहानी आज भी जिंदा है ओहाँ के माटी में...
बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में
आल्हा-ऊदल गढ महुबे के, दिल्ली का चौहान धनी
जियत जिंदगी इन दोनों में तीर कमानें रहीं तनी
बाण लौट गा शब्दभेद का,  दाग लगा चौहानी में
पानीदार यहां का पानी,  आग यहां के पानी में
अऊर जब गाँधीमैदान में तीनों लोग सब गाता था, लगता था कि लड़ाई का दृस्य सामने उपस्थित हो गया है अऊर बीर जोद्धा अपना तलवार लेकर कूद गया है दोस्मन का प्रान लेने के लिए चाहे अपना प्रान का आहूति देने के लिए.
आज सिनेमा में भी लोग आल्हा पर आधारित गीत बनाने का कोसिस किया है. गाना चला भी  खूब. जैसे फिलिम मंगल पाण्डे का गानाः
जागे नगर सारे, जागे हैं घर सारे, जागा है अब हर गाँव
जागी है बगिया तो, जागे हैं पेड़ और जागी है पेड़ों की छाँव.
मंगल मंगल मंगल मंगल मंगल मंगल हो!!
या फिर विशाल भारद्वाज का गानाः
धम धम धड़म धड़ैया रे, सबसे बड़े लड़ैया रे, ओंकारा!
आँखें तेज तपैया दोनो, जीभ साँका फुंकारा, ओंकारा!!
और आज मची है धूम जिस गाने की:
मन बलवान, लगे चट्टान, रहे मैदान में आगे
जो झंझार, हो  तैयार वही सरदार सा लागे..
हुड़ हुड़ दबंग!!
खैर! सिनेमा का गाना में तो लोक गीत का इस्तेमाल सुरुये से होता रहा है. मगर आल्हा का राग अऊर उसका धुन सुनकर हमरा मन ओहीं गाँधी मैदान में पहुँच जाता है, हमरा बचपन में. तीनों बूढ़ा आदमी का चेहरा एकदम साफ देखाई देने लगता है. एगो गायक थे बच्चा सिंह जो आल्हा गाते थे. मगर उनका गाया हुआ आल्हा कहीं मिला नहीं हमको.पता नहीं आज ई परम्परा कौन हाल में है.

43 टिप्‍पणियां:

  1. बिहार से बुन्देलखंड, रीजेण्ट सिनेमा के सामने वाला मैदान की ढोलक छाप से आल्हा उदल की वीर गाथाओं को शब्द मणिका में यू पिरोनें की कला को सलाम!
    -चैतन्य

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  2. सलिल जी, जिनती धाराप्रवाह से आल्हा गाया जाता होगा उतनी ही धाराप्रवाह से आपने ये पोस्ट लिख दी....... और पढते पढते हम भी पहुँच गए.... गाँधी मैदान.

    बस पता नहीं ये कविता सातवीं क्लास वाली याद आने लग गयी.....

    बुंदेले हरबोलो के मुंह से हमने सुनी कहानी थी.....
    खूब लड़ी मर्दानी हो तो झांसी वाली रानी थी...

    कुछ इस तरह की पंक्तियाँ थी...

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  3. आज बेहद रोचक विषय पर पोस्ट लिखी है आपने .... उत्तर प्रदेश के गाँवों में आज भी आपको कुछ लोग आल्हा और ऊदल के किस्से सुनते मिल जाते है .... कभी कभी तो रोडवेज़ की बसों में भी फ़िल्मी गानों की जगह यही बज रहे होते है .... पर बात वही है कि 'कभी कभी' ! इस प्राचीन कला को सँभालने वाले अब बहुत ही कम लोग बचे है !
    एक सार्थक पोस्ट के लिए बधाइयाँ !

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  4. अहा…………! अपने दिन के बारह घन्टे उसी गाँधी मैदान के इर्द-गिर्द बीतते हैं सर जी। पर अब कहाँ ये नज़ारा मिलता है…अलबत्ता अब तो गन्दगी का ढेर और ओछे भद्दे फ़िकरे सुनने को मिलते हैं…! आधुनिकता की दौर में अपना शहर अपनी रंगत खो रहा है।

    पोस्ट बहुत आनन्दायक रही।

    नमन!

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  5. काफी रोचक पोस्ट है आपकी ..धीरे- धीरे भाषा पर पकड़ बनती जा रही है मेरी... आपकी कृपा से , और एक दिन मैं भी माहिर हो जाऊंगा आपकी भाषा में बात करने के लिए , बहुत खूब लिखते हैं आप ...शुक्रिया

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  6. सोडा फाउण्टेन का गुलाब जामुन मस्त रहता है :)
    गांधी मैदान हम भी बहुत घुमे हैं चचा..अब तो वैसा कुछ होता नहीं गांधी मैदान में...:(
    पहले जैसा सुन्दर भी नहीं दीखता...बहुत जगह कचरा जमा रहता है :(


    वैसे एक बात आप एकदम ठीक बताएं चचा...रिजेंट और एलिफिस्टन में सिनेमा बहुत बड़ा हिट होता है..जईसे ग़दर,विवाह,कहो न प्यार है, और भी बहुत सिनेमा..:)

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  7. सलिल भैया,
    आल्हा के बारे में सबसे पहले पढ़ा था बच्चन जी कि आत्मकथा में, वर्णन पढ़कर ही रोमांच हो आया था। बाद में तो खैर सुना भी खूब। पंजाब में आये तो हमारे गार्ड साहब से एक बार जिक्र कर बैठे और एक्सचेंज आफ़र के तहत उनकी मार्फ़त दो पंजाबी गीत प्राप्त किये, इस वादे के साथ कि उन्हें आल्हा सुनवायेंगे। ढाई साल हो गये, वादा पूरा नहीं कर पाये। एक ट्रेनिंग के सिलसिले में भोपाल गये थे ढूंढ ढांढ कर एक सीडी लाये ’मछला हरण’ हमारे सिस्टम में चली ही नहीं। एक बुंदेलखंड के चमकते सितारे को पटाया था आल्हा के चक्कर में, वो बदमाश भी दगा देकर गायब है।
    चार बरस लों कुक्कुर जीये, आठ बरस लों जिये सियार
    आगे नहीं कहेंगे
    भैंस कहीं ब्याह्ती थी और कटड़ा कहीं गिरता था,
    क्या क्या बिंब, दादा सब याद दिला दिये।

    आपने फ़िर से याद करवाकर नमक बुरक दिया है:) मजा आ गया लेकिन - और हां अब हम पटना का जब भी जिक्र करेंगे, सुनेंगे तो आपके साथ असोसियेट करके, दिल पर मत लेना:)

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  8. गांधी मैदान में ब्याह के पहले बैठने का मौक़ा हाथे नहीं लगा, अ‍उर बियाह के बाद कनिया को लेकर गए त तनिके देर में देखे बाला का मेला लग गया।
    रेजेन्ट में चले गए सिनेमा देखने। तू ना जा मेरे बादशाह देखे थे।
    ढेर सारी पारंपरिक लोककलाओं के तरह अल्हो धीरे-धीरे गायब होते जा रहा है। इ बेर जब गाव गए थे छठ में त एगो बहुत अच्छा अल्हा गाने बाले को दरभंगा में पकड़ा गया है। उसका आबाज़ कैद कर लिए हैं।
    कभी मौक़ा मिला तो ब्लोग पर भी आएगा।

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  9. सलिल जी दुर्गा पूजा में गांती बांध के हाथ में बोरा या खजूर की चटाई लपेटे खूब आल्हा देखे सुने हैं .. हमारे गाँव में बलेल बाबा थे.. थे तो दुसाध लेकिन पूरा गाँव जमात उनको बाबा कहता था.. कम से कम आधा किलोमीटर इ उनका आल्हा का तान... ओये मोहबा के..... सुना जाता था... बलेल बाबा के मरने के साथ चुप हो गया वो तान... वास्तव में हम दरिद्र होते जा रहे हैं सांस्कृतिक रूप से...

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  10. सचमुच आल्हा की बात निराली है । याद आता है वह समय जेठ-वैशाख की अलस दुपहरी में जब लू सनसनाती थी और खेती का काम ठप्प रहता था किसी चबूतरा के छप्पर या नीम तले आसन जमाए गाँव के ज्वान-जवान आल्हा गाते थे । और श्रोता जोश में हुंकारे लगाते थे ।

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  11. पटना के बाद हम झाँसी पहुँच गये।

    आल्हा ऊदल बड़े लड़इया, उनसे हार गयी तलवार..

    अभी भी मन में बसा है यह..

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  12. एक बात ....हम अबहीनों गलती से रेस्तरां को होटल बोल देते हैं..हे हे हे ..हमरे गांव की तरफ से आल्हा गायब हो गईल बा ..हाँ बचपन में खूब सुने के मिले कि बाबा आज इहाँ आल्हा सुने गईल बाना .. और आज उहाँ बिरहा सुने ... बाबा के जाने के बाद सायद इ सब चीज़ भी गाँव से चल गईल ...

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  13. आप में एक ठो बात है, मज़ा ला देते हैं....हमको बहुत अच्छा से याद है जब नाना आल्हा और उदल का कहानी सुनाते थे तो अच्छा लगता था....रमेन और महाभारत के बाद जो सबसे जादा बार कहानी सुने उसमे से आल्हा का कहानी है.....
    गाना सुन के मौसम दिन-रत का पहर का अनुमान तो होएबे करता है.....इ भी गजबे बात है. बस एक ठो बात है की हम कभी पटना नहीं रहे....लेकिन सुने जाने बहुत....
    सबसे अच्छा लगता है आपका topic लिखने का..... एक बार और कभी नाटक लोहा सिंग के बारे में लिखिएगा जरूर....हमारा नुवेदन है....
    बहुत सुने हैं इसके बारे में....किताब कहा मिल सकता है जरूर बताइयेगा....
    बहुत धन्यवाद...
    राजेश

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  14. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  15. हां,,..आल्हा सुनने का मौका कई बार मिला है। अब भी मिल जाता है वो बी ठेठ दिल्ली में। पर दिल्ली में बात वही है कि साल दो साल में एक बार भी सुनने को मिले तो समझिए धन्य हो गए।

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  16. मीठी निराली भाषा है
    थोड़ी थोड़ी समझ में आयी
    हमारे समय सिनेमा को बाईस्कोप कहा करते थे

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  18. हाँ चचा जी,
    बहुत ही उपयोगी और जिम्मेदार पोस्ट लिखे हैं. बांकी ई कला तो सचे में डायनासोर के जैसा गायब होता जा रहा है.... या कहिये कि गायाबे हो गया है. वैसे तो आल्हा-रुदल (उदल) के नाम पर अपसंस्कृति परोसने वाला बहुते पाटी मिल जाएगा मगर आप जिस तरह के आल्हा-गायन सैली की बात किये हैं, मिलना मोसकिल है. हम भी बच्चे में एक बार सुने रहे. हमरे गाँव में आया था एगो आल्हा गबैय्या. हालांकि उ तीन आदमी नहीं अकेले था मगर का गाता था...., "जभिये नाम बजा नयना का.... पंडीजी के हिले बतीसो दांत....!" और दे ढोलक पर थाप...... किरलक-किरलक-धनाक....!

    ई बार छठ में गाँव गए रहे तो बड़ी मोसकिल से उसका पता लगाए. लोक-कला और संस्कृति के प्रति पब्लिक और परशासन दोनों का उदासीनता/असंवेदनशीलता देखिये कि उ कलाकार का मौलिक घर-द्वार सब उजार दिया. अब बेचारा दरभंगा बेला चौक के पास रहता है. गए थे उ से भेंट करने. हमरे आग्रह पर उ १० मिनट का एगो परसंगो सुनाया.... मौका लगा तो कभी ब्लोगों पर लायेंगे. आपकी नजर-ए-इनायत की ख्वाइश रहेगी. धन्यवाद !!!

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  19. हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरें समाप्ति के कगार पर हैं . इनको जीवंत रखने के प्रति सरकार , प्रशासन और कुछ हद तक हम भी उदासीन होते जा रहे हैं. बदलती जीवन शैली और उसकी तेज रफ़्तार , समय का अभाव आदि इन लोक कलाओं की उपेक्षा का कारण हैं .

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  20. अल्हा की कहानी पहली बार सुनी। रोचक पोस्ट के लिये बधाई।

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  21. सांस्कृतिक पतन के युग में हम धीरे धीरे ऐसे ही खोएंगे अपनी विरासत..

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  22. बहुत ही बढ़िया विवरण..पता नहीं अब गांधी मैदान की घास उतनी हरि-भरी होती है या नहीं.

    आल्हा-उदल के बारे में सुना तो था..पर कभी सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. आपने बड़ी अच्छी जानकार दी कि उधृत फ़िल्मी गाने ..आल्हा -उदल पर आधारित हैं..सुन कर ही पता चलता है कितना जोश भरा गीत होगा वो.

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  23. सलिल जी बहुतै बढ़िया प्रस्तुति.आज भी लल्लू वाजपेयी , संजो बघेल और देश राज जैसन लोक गायक आल्हा के धुन को जिन्दा रखले हवे . ओ रात याद आ गएल जब बिना घर से बतौले आल्हा सुनल चली गएनी . सुबह-सुबह बप्पा जान के डंडा इन्तेजार करत रहल. मगर ऊ डंडा के चोट भुला के कुछे देर बाद हम दोस्त लोगन से रात के कहानी बखान करत रहनी... खटक- खटक के तेगा बोले , छपक- छपक बाजे तलवार ।। सारे पड़े चित्त मैदान , सहा ना जाये अब उदल के वार ।।

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  24. bade bhaiya.......ketna badhiya aap sabdo se photu khinchte hain.......ek dumme pura gandhi maidan samne aa gaya,.......hamko wahan ka dugo aur kona yaad hai ! EK KONA me science centre tha aur ek kona me AN Sinha Insttt, jahan se PGDRD kiye ham:)

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  25. आल्हा का जिक्र कर आप हमें बहुत ही खुश कर दिए हैं...कभी आपके साथ बैठ कर सुनेंगे...

    नीरज

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  26. वीर रस का उल्लेख कर लुप्त होती मानवीयता पर अद्भुत प्रकाश डाला है.
    पुनः पुरातन मानवीयता लौट सके ,इसके लिए आपने प्राकृतिक ,सांस्कृतिक ,पुरातात्विक धरोहरों का सर्वोत्तम प्रयोग किया है. आल्हा -ऊदल की गाथा के माध्यम से दो प्रान्तों की सांस्कृतिक एकता पर गहन प्रकाश डालने के लिए धन्यवाद.

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  27. शायद पहली बार है , जब आपने वीर रस पर और साथ ही साथ गाँधी मैदान के क्रिया कलापों का सुन्दर चित्रण किया है . आपकी लेखनी तो यूँ भी सार-गर्भित है . मेरी बधाई पुनः स्वीकार क्लारें.

    पुनश्च: आपको मेरी कविता पसंद आयी, इसके लिए धन्यवाद , इसके पहले की एक और कविता है,जो शायद आपका ध्यान आकर्षित नहीं कर पाईए. चर्चा मंच पर भी उपलब्ध है और मेरे ब्लॉग पर भी. आपका ध्यान चाहूँगा .

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  28. kahan 25 sal piche dhakel diye bhaijee..........
    allah..sunne ke liye ketna bans ki hariar karchi
    pith par turwaye hain ......

    vir-ras me allah ke sani nahikhe.....


    pranam.

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  29. are bhaiya!
    maza aa gaya apke sansmaranyut sunder, lalit
    lekh ko padhkar.
    lokbhasha aur lokgeeton ka anany prem vandniy hai...

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  30. बहुत ही खूबसूरती से आपने गांधी मैदान से बुंदेलखण्ड की सैर कराई। कोनो चिंता न कीजिए... आल्हा आज भी जिंदा है.... बुंदेलखंड और उसके आसपास के इलाके जैसे ग्वालियर आदि में भी आल्हा बड़े उत्साह से गाया जाता है। लेकिन माफ कीजिएगा आप मुझे न कह देना सुनाने को...... आज भी आल्हा-ऊदल की वीरता के किस्से कहे जाते हैं।

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  31. गुड मोर्निंग भैया ,
    बड़ी पुरानी यादें दिला दी एक समय हम आल्हा से अच्छा ग्रन्थ और इतिहास किसी को नहीं मानते थे ! वीर रस से ओतप्रोत यह काव्यखंड आज भी गाँव में मनोरंजन का एक मात्र साधन है ! शुभकामनायें !
    ??

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  32. आज भी गांव में बारिश के समय (जब खेतों में काम नहीं होता ) रात को आल्हा का कार्यक्रम यदा कदा हो जाता है ।

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  33. संगीत अंतर्यात्रा है। कोई भाषा भी नहीं है उसकी। इसलिए,भावभूमि कुछ भी हो,गवैये की आँखें स्वतः बंद हो जाती हैं। और,तभी पैदा होती है वह स्वर-लहरी जो सुनने वाले को संस्कृतियों के आर-पार ले जाती है।

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  34. aapkaa ee jo patnaa-darshanvaa aalekh tha.... hamko bhi bahute acchha lagaa blaaggar babu... sacchhi...bhayiya......

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  35. बहुत रोचक .. आल्हा उदल की बात सुनी है ...वीर रस से ओत प्रोत गीत होते हैं ...आज यहाँ पढ़ भी लिया ...अच्छी जानकारी देती पोस्ट ..

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  36. आवाज का असर था, कि गाना के बोल का असर था कि गाना के धुन का असर था, कि गाने वाला के आवाज का असर था, कुलमिलाकर एगो अजीब भगवानी असर था।

    संगीत का आनंद बह्मानंद की तरह होता है।
    सुंदर संस्मरण।...पढ़कर अच्छा लगा, सलिल जी।

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  37. सलिल जी,
    आपने तो पटना का पूरा चित्र ही खींच दिया !
    पूरा लेख जैसे चलचित्र कि तरह आँखों से गुज़र गया !
    धाराप्रवाह,प्रभावी लेखन शैली को नमन !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  38. बाऊ जी , सबसे पहले तो बहुत बहुत धन्यवाद आपको | आपने घर से १००० कि.मी. दूर लगभग भोरे के बखत बैठे ब्लॉग पढ़ रहे एक लड़के को एक ही पल में वापस उसके शहर पहुंचा दिया | मैं बुंदेलखंड के बहुत पास रहा हुआ हूँ तो वहाँ की संस्कृति से काफी परिचित हूँ , ये राग मैंने वहाँ सुने हुए हैं |
    लेकिन दुर्भ्ग्यवश धीरे धीरे लोक गीत की यह शैली डूबती ही जा रही है |
    एक और बात आप पियूष मिश्र जी के लिखे हुए गाने सुनिए , मुझे यकीन है आपको पसंद आयेंगे |
    जैसे- आरम्भ है प्रचंड , जब शहर हमारा सोता है(दोनों गुलाल मूवी)

    सादर

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