गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

एलिस इन वंडरलैंड


बुढापा में आदमी बच्चा जैसा हो जाता है. मगर एक मिनट रुकिए, ई कारन नहीं है हमरे आज के पोस्ट के सीर्सक का. अभी न हम बुढाए हैं, न बच्चा हुए जा रहे हैं. असल में आज हमको उसके लेखक लुईस कैरल का याद आ रहा है. सुने थे कि जब ऊ बड़ा हुए तो उनको कुकुर खांसी (काली खांसी या हूपिंग कफ) का बीमारी हुआ. ठीक होने के बाद उनको एक कान से सुनायी देना बंद हो गया. एही नहीं, ऊ बात करने में हकलाते भी थे. अब ई बीमारी था कि संकोच, कहना मोसकिल है. मगर सायद एही कारन से ऊ अपने दोस्त लोग से कटकर रहने लगे होंगे. बच्चा लोग और जानवर का संगत उनको पसंद था. अइसहीं उनको “एलिस इन वंडरलैंड” लिखने का प्रेरणा मिला होगा.
हमारे साथ इस्कूल में दू गो लड़का पढता था आनंद अउर सुमन. दुनो एतना हकलाता था कि का कहें. सबलोग ऊ दुनो को कोनों बात पर उकसा देता था अऊर उसका बात पर हँसने लगता था. मगर कमाल देखिये, दुनो गाना गाते समय एकदम नहीं हकलाता था. सुमन का खासियत था कि ऊ लड़की के आवाज़ में गाता था अऊर हमारा दावा है कि ऊ दुनो, आनंद अऊर सुमन, का गाना आप आँख मूँद कर सुनिये त धोखा खा जाइयेगा कि ई आसा भोंसले अऊर किसोर कुमार का डूएट है.
रेडियो में काम करने से एगो सबसे बड़ा फायदा ई हुआ कि बहुत सा अच्छा आदत बचपने से लग गया. उसके कारन बहुत संतोस मिलता है. अब देखिये ना, हंसी मजाक, चुटकुला-लतीफा, खिस्सा कहानी हम लोग छोटा उम्र से लेकर अभी तक सुनते चले आ रहे हैं. लेकिन रेडियो में सिखाया गया कि कभी किसी के लाचारी का मजाक उड़ाने वाला चुटकुला नहीं सुनाना चाहिए. इसीलिये हमलोग हकलाने वाला, अंधा चाहे बहरा-गूंगा लोग का चुटकुला कभी नहीं सुनाये, न एन्जॉय किये.

खैर, “एलिस इन वंडरलैंड” और लुईस कैरल या आनंद और सुमन का बात के बाद, आज हमको ई जाने वाला साल २०११  का उपलब्धि के रूप में एक ब्यक्ति का मिलना याद आ रहा है. हमारे लिए साल का सबसे खूबसूरत घटना. उनका खुद अपने बारे में क्या बिचार है उन्हीं के मुंह से सुनिए. कहते हैं:
Normally, people get very disappointed on meeting me or talking to me . I am very hopeless that way. So beware!!
(अमूमन, लोग मुझसे मिलने और बात करने के बाद बड़े मायूस हो जाते हैं. इस मामले में मैं बड़ा “होपलेस” हूँ. लिहाजा, होशियार!)

साधारण कद काठी, एकदम सफ़ेद बाल, आँख पर मोटा चस्मा, भरा हुआ चेहरा अऊर आँख में सरारत भरा हुआ चमक. बात करते समय होसियार रहना पड़ता है कि आपका कउन सा बात/सब्द से ऊ का बात बना देंगे. हमेसा हंसते मुस्कुराते रहने वाला आदमी हैं. मगर खाली उनके लिए जिनको ऊ जानते हैं. जिनको नहीं जानते हैं, उनसे बात करने में भी हिचकते हैं. दोस्त बनाते नहीं, बना लिया तो दिल से निभाते हैं. कारन??? कारन जब उनसे बात हुआ तब मालूम हुआ. पूरा ब्यक्तित्व के बाद जब ऊ बोलते हैं त एकदम जनानी आवाज़, पर्सनाल्टी के एकदम बिपरीत. एही से ऊ नया लोग से मिलना कम पसंद करते हैं. हमसे भी बहुत बार कोसिस करने पर बात हो पाया अऊर ऊ भी तब, जब मेट्रो में अचानक सामना हो गया. तब से लेकर आज का दिन हमारा पूरा परिबार उनका परिबार है अऊर हम सब के बड़े भाई हैं.

अब आप सोचियेगा कि हम जिनका गुणगान किये जा रहे हैं आखिर उनमें अईसा का खूबी है जिसके लिए हम एतना परिचय दिए. त तनी सबर रखिये. ई परिचय है हमारे बड़े भाई रविन्द्र कुमार शर्मा जी का. कमाल के सायर हैं. एतना सम्बेदनसील की पूछिए मत. एक बार एक शेर को लेकर हम दोनों में मतभेद हो गया. ऊ कनफेसन छाप दिए कि हमको सायरी नहीं आता है, हम मन से लिखते हैं. हम भी जवाब में कैफी आज़मी को कोट कर दिए. मगर उनको एतना बिरोध के बाद भी तब तक चैन नहीं मिला जबतक हमको गले नहीं लगा लिए अऊर हमको भी, जबतक उनका पैर नहीं छू लिए.

मुशायरे में लोग उनका आवाज़ नहीं सुनता, काहे कि उसमें कोइ दम नहीं है, मगर उनका सायरी, गजल अऊर कबिता सुनकर कोइ भी वाह-वाह किये बिना नहीं रह सकता. चिड़िया, दरख़्त, गाँव, बारिस, पगडंडी, कच्चा मकान, सोंधी महँक सबकुछ दिखता है अऊर जोड़ लेता है सबको अपने आप से. उनके आवाज में राहत इन्दौरी अऊर मुनव्वर राना वाला दम नहीं है, मगर सायरी कहीं से कम भी नहीं है.

अगर सूरज ने अब झुलसा दिया हो आपको काफी
तो आओ मांग लें काटे हुए पेड़ों से हम माफी.
लिखे कुछ शेर तो हमको लगा था दिल का ग़म निकला
मगर उनकी नज़र में वज्न कुछ मिसरों का कम निकला.
गुमशुदा हर आदमी हर शख्स दीवाना लगा
मैं तुम्हारे शहर से गुज़रा तो वीराना लगा
ऐ इमारत कूदने वाले से ये तो पूछती
ज़िन्दगी से क्यूँ उसे आसान मर जाना लगा.
समंदर नदी को बहुत प्यार देना
ये ऊंचे घराने से आई हुई है.
ज़माने से अलग अपनी यही पहचान है शायद
चलो अच्छा हुआ इस दौर में हम हाशिये पर हैं.

ई त बस कुछ बानगी है. पूरा फेसबुक का देवाल भरा हुआ है, इनके छोटा-छोटा शेर अऊर गजल से. कहते हैं कि नया साल का पहिला ही दिन “रवि”वार है. अऊर तब हमको लगता है कि हमको फेसबुक से बस एही सख्स जोड़े हुए हैं. जउन दिन “रवि”वार नहीं होता है, ऊ दिन हमको पीकर फेंका हुआ पेप्सी का खाली कैन लगता है, जिसको हर आने-जाने वाला आदमी ठोकर मारकर चल देता है.
साल २०११ ने बहुत से लोगों को छीना है, इसका त अफ़सोस सबलोग को है, मगर जो हमको दिया है, उसके लिए परमात्मा का धन्यबाद करते हैं. उनका सायरी को लेकर कभी जरूर हाजिर होंगे, मगर अभी हमारा मन का बात, रविन्द्र कुमार शर्मा जी के लिए:
हमने जब इंसानियत को शक्ल में ढूंढा ‘सलिल’
बस रविंदर सा’ब का चेहरा नज़र आया हमें.
बाद जो माँ-बाप के चाहा झुकाना सर कहीं
ये दिले नादाँ इन्हीं के दर पे ले आया हमें!

रविवार, 18 दिसंबर 2011

चल दिए सू-ए-अदम - अदम गोंडवी


रविवार की सुबह मेरे लिए अमूमन दोपहर को होती है. सोकर उठा तो घर में मेहमानों की संख्या अधिक होने के कारण दोनों गुसलखाने बंद थे. लैपटॉप खोलकर बैठ गया और फेसबुक पर सबसे पहली खबर जो मिली वह थी - अदम गोंडवी नहीं रहे. यहीं से कुछ समय पूर्व किसी ने उनकी बीमारी, साधनों का अभाव और प्रशासन द्वारा उपेक्षा का समाचार मिला था. आज वो घड़ी भी आ गयी जिसे टाला नहीं जा सकता था. एक पुरानी कहावत है कि मनुष्य मृत्यु से नहीं – मृत्यु के प्रकार से डरता है. अदम गोंडवी साहब के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन वो एक स्वाभिमानी इंसान थे, जब बुलावा आया तभी गए “खुदा के घर भी न जायेंगे बिन बुलाये हुए” वाले अंदाज़ में.

इनसे मेरा पहला परिचय १९८६-८७ में हुआ था. पत्रिकाओं में दो रचनाओं के बीच छोटे से कॉलम में कोइ कविता या गज़ल छापने का रिवाज़ तब भी था. ऐसे ही एक कॉलम में अदम गोंडवी साहब की गज़ल मैंने पहली बार पढ़ी
काजू भुनी पिलेट में, ह्विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में!
और बाद के शेर ऐसे कि जैसे हाथ में लें तो फफोले निकल आयें और ज़ुबान पर रखें तो मुंह जल जाए. तब तक दुष्यंत कुमार की गज़लें नसों में खून की गर्दिश तेज कर देती थी. लेकिन इस एक गज़ल ने जैसे आग लगा दी. तब इंटरनेट वगैरह की सुविधा न थी. न शायर के बारे में जान सका – उसके रचना संसार के बारे में. लेकिन दिमाग के किसी कोने में यह शायर घर कर गया.

घुटने तक मटमैली धोती, बिना प्रेस किया मुचड़ा कुर्ता-बंडी और गले में मफलर... यह हुलिया कतई एक शायर का नहीं हो सकता. और अगर यह कहें कि यह हुलिया एक मुशायरे के रोज एक शायर का है तो आपको ताज्जुब होगा. ऐसे शख्स थे जनाब राम नाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी. मुशायरों में इनकी शायरी पर जितनी वाह-वाह होती रहे, उनके चहरे से कभी ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने कोइ बड़ी बात कह दी हो. आज जब किसी शायर को, शेर के वज़न से ज़्यादा, खुद की एक्टिंग से शेर में असर पैदा करते देखता/सुनता हूँ, तो लगता है कि अदम साहब की सादगी ही उनका बयान थी. जो शख्स भूख पर शायरी करता हो, उसने भूखे रहकर वो दर्द महसूस किया है, जो उसके बयान में है.

सही मायने में कहा जाए तो उनकी पूरी शायरी उनका अपना अनुभव था. साहिर साहब ने कभी खुद के लिए कहा था कि
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं.
और अदम साहब की शायरी में भी वही दिखता था. साहिर साहब को तो रूमानियात के भी अनुभव होंगे, इसलिए रूमानी शायरी भी कर लेते थे, लेकिन अदम गोंडवी साहब के लिए तो शायद वह भी अनुभव न रहा होगा. उनका तो कहना था कि
ज़ुल्फ़, अंगडाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब,
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब.
देश की आज़ादी के दो महीने बाद (२२ अक्टूबर १९४७) पैदा हुए राम नाथ सिंह को दिखा होगा कि मुल्क आज़ाद नहीं हुआ है. या जिसे हम आज़ादी कह रहे हैं वह एक ख्वाब है जो सारी जनता को दिखाया जा रहा है, जो एक अफीमी नींद में बेहोश सो रही है. एक जागा हुआ शख्स था वो जिसे दिखती थी भूख, बेरोजगारी, इंसानों-इंसानों में फर्क, हिंदू-मुसलमान के झगड़े, वोट की राजनीति, मजदूरों का दमन, औरतों पर अत्याचार, समाज में बढ़ता शोषण. ऐसे में राम नाथ सिंह सोये न रह पाए, नशा टूटा और वो अदम बनकर लोगों को बेहोशी के आलम से निकालने को गुहार लगाने लगे.

बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले आती है ऐसे मोड पर इंसान को.
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महल से झोपड़ी तक एकदम घुटती उदासी है,
किसी का पेट खाली है, किसी की रूह प्यासी है.
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वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है,
उसी के दम पे रौनक, आपके बंगलों में आई है.
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जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज
उस युवा पीढ़ी के चहरे की हताशा देखिये.
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मज़हबी दंगों के शोलों में शराफत जल गयी,
फन के दोराहे पे नंगी द्रौपदी की लाश है.

जहां दुष्यंत की गज़लें एक मद्धिम आंच की तरह धीमे-धीमे सुलगती है, वहीं अदम गोंडवी साहब की गज़लें एक लपट की तरह हैं.

गांधी जी ने कहा था कि तुम कोइ भी निर्णय लेने से पहले देश के एक सबसे कमज़ोर व्यक्ति के विषय में सोचो कि इस निर्णय से उसका कितना फायदा हो पाएगा.

पता नहीं देश के रहनुमाओं ने उसपर गौर  किया या नहीं, पर काश अदम गोंडवी साहब की ग़ज़लों का मजमुआ योजना आयोग के पास होता. आज जब वो अज़ीम शायर हमारे बीच नहीं है, उसकी जलाई हुई मशाल मौजूद है.
ताला लगाके आप हमारी ज़ुबान को,
कैदी न रख सकेंगे ज़ेहन की उड़ान को.
मौत ने भले ही उनकी ज़ुबान पर ताले डाल दिए हों, उनका सवाल कभी खामोश नहीं होगा.
 
आज उनकी मौत पर यह भी नहीं कह सकता कि परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे, क्योंकि उनकी आत्मा को शान्ति मिलनी होती तो इसी दुनिया में मिल गयी होती!

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

चोर चोर मौसेरे भाई!!


पीछे बोखार लगा हुआ था त हम छुट्टी में घरे पर थे. दवाई खाकर थोड़ा देर फेसबुक में दोस्त लोग को खबर किये अऊर आराम से कम्बल ओढकर लेट गए. छुट्टी के दिन सबसे दिक्कत होता है फोन से. तनी आँख लगा नहीं कि मोबाइल पर पंडित सिव कुमार सर्मा जी का संतूर बादन सुरू. ऑफिस से फोन कि वो वाला प्रोपोजल हुआ कि नहीं, कौन से फोल्डर में है, मेल कर रहे हैं, हो सके तो पूरा करके मेल कर दो. अऊर अंत में ऑफिस से लोग ईहो कहना नहीं भुलाता है कि अपना ध्यान रखना, दवा लेते रहना और रेस्ट करो. ऑफिस का टेंसन मत लो, हम देख लेंगे.
एकाध बार अऊर सोने का कोसिस किये त बहुत सा सुभचिन्तक लोग का फोन आने लगा, अरे क्या हो गया. ऑफिस फोन किया तो पता चला कि आज छुट्टी पर हैं आप, तबियत खराब है. देखिये ये बुखार नेगलेक्ट करने वाले नहीं होते. शाम को डॉक्टर से दिखा लेना. फ़्लू भी हो सकता है.
खैर, एही सब के बीच कब नींद आ गया पता भी नहीं चला. अचानक, एगो अंगरेजी गाना का धुन सुनकर आँख खुल गया. देखे साढ़े पांच बज रहा था अऊर सिरीमती जी का मोबाइल बज रहा था. हई देखिये, ई भी मोबाइल छोडकर सहेली लोग के साथ धूप का आनंद ले रही हैं. फोन उठाकर बोले, हेलो!
अरे भाई साहब आप! रेणु कहाँ है?
यहाँ नहीं है.
अच्छा! मैं दीपाली के पास देख लेती हूँ! असल में यहाँ नीचे एक चोर पकड़ा गया है. अपार्टमेंट में घुस गया था. वही बताना था.
अरे! हमारे अपार्टमेंट में चोर!! मैं आता हूँ!
सोसाइटी का पदाधिकारी होने के नाते हमको जाना ही था, काहे कि बाकी लोग त ऑफिस गया होगा.
नीचे मेला लगा हुआ था मैदान में. खाली बच्चा और लेडीज लोग. गार्ड चोर को पकडकर झूला का पोल में बाँध दिया था. पता चला कि ऊ देवाल फांदकर घुसा था. किसी का नजर पडा, हल्ला हुआ तब उसको गार्ड लोग पकड़ा. हमरे आने के पहले मरम्मत का एक राउंड चल चुका था.
हम ऊ चोर से पूछते रह गए, प्रेम से, गोस्सा से, मगर उसका मुंह से बोल नहीं फूटा. धीरे-धीरे ऑफिस से लोग-बाग का आना सुरू हो गया. उसके बाद उसका पिटाई सुरू हुआ. कोइ थप्पड़ मार रहा था, त कोइ छड़ी से पीट रहा था. मगर ऊ भी मुंह से कुच्छो नहीं बोला कि कहाँ से आया है, साथी कौन-कौन है, काहे के लिए आया था.
औरत लोग के बीच में भी तरह-तरह का पर्तिकिरिया चल रहा था, और मारिये. जानकर इस टाइम घुसा है, जब कोइ जेंट्स घर में नहीं हो, बेचारे को जाने दो, चोट लग रहा होगा, पीटो मत, पानी तो पीला दो, ये लोग गैंग में चलते हैं, कम से कम १०-१५ साथी होंगे इसके. अरे, दो दिन पहले मैंने इसे लिफ्ट में देखा था, कह रहा था कि पानी देने आया है.
मार-पीट तो हमसे भी नहीं हुआ. ऊ भी ढीठ जैसा चुप था. जब सारा लोग आ गया, त हमलोग फैसला किये कि पुलिस के हवाले कर देते हैं, जो होगा वही लोग करेगा. तब तक पुलिस इस्टेसन से दू चार गो सिपाही आ गया अऊर बोला कि आप लोग के खिलाफ सिकायत दर्ज किया गया है कि कोइ आदमी को आपलोग जबरदस्ती पकड़ कर रखे हुए हैं. हमलोग समझाने का कोसिस किये मगर आखिर में क़ानून का हाथ बहुत लंबा होता है, ऊ सिपाही लोग उसको छोड़ाकर ले गया. छोड़ना त था ही. पता चला कि गेट के बाहर मोटरसाइकिल पर उसका साथी इंतज़ार कर रहा था. सिपाही ले जाकर उसको उसके दोस्त लोग को सौंप दिया और ऊ तथाकथित चोर मोटरसाइकिल पर बैठकर चला गया.
सब लोग अपना-अपना घर लौट गया, अपना-अपना एक्सपर्ट कमेन्ट के साथ.
घर पहुंचे त चैतन्य जी का फोन आया हमरा हाल-चाल पूछने के लिए. उनको हम ई घटना बताए. अपना इस्टाइल में उनका जवाब सुनकर हम भी सोच में पड़ गए, अरे सलिल भाई! वो तो कोइ छोटा-मोटा चोर रहा होगा. यहाँ तो देश में यही हो रहा है. एक चोर पकड़ा जाता है. और उसके सारे साथी पकडने वाले को नाजायज बताने पर तुल जाते हैं. फिर थोड़ी सी थुक्कम-फजीहत के बाद वो चोर छूट जाता है और सम्मान के साथ अपनी बिरादरी में शामिल हो जाता है. फंस जाता है बेचारा पकडवाने वाला.
हम दुनो दोस्त हँसने लगे. सामने अखबार पडा था अऊर उसमें बड़ा-बड़ा हेडलाइन था ........ ज़मानत पर रिहा! ...........के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच शुरू!!

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

ब्लॉग-बस्टर पखवाड़ा


सीर्सक देखकर आप लोग को बुझायेगा कि हमसे गलती से इस्पेलिंग मिस्टेक हो गया है. ईहो सोच सकते हैं आपलोग कि बिहारी त बिहारीये रहेगा. कुछ लोग, जिनके मन में हमरा कुछ इज्जत बचा हुआ है, उनको लगेगा कि ई भी हमरा कोइ इस्पेलिंग ईस्टंट है. मगर तनी डीपली घुस के सोचिये. एतना बोलने के बाद त आपका ध्यान सीर्सकवा से हट गया होगा, मगर सोचते होइएगा कि इधर त कोनो ब्लॉकबस्टर सिनेमा भी नहीं आया. ले दे के चर्चा में रॉकस्टार था अऊर रा-वन. उसके बारे में भी एतना देरी से लिखने के लिए कुछ बचा नहीं है.

तनी रुककर लौटते हैं सीर्सक पर. अपने पंडित जी, डॉ. अरविन्द मिसिर जी के ब्लॉग पर एगो कमेन्ट करने वाला/वाली आता/आती था/थी (बहुत कस्ट हो रहा हो इसलिए आगे ऊ कमेन्ट करने वाले का चर्चा में हम पुल्लिंग रूप प्रयोग करेंगे जिसे बिना कोनो भेद-भाव के, अगर ऊ महिला हों तो महिला-बाचक भी माना जाए). उनका नाम था गोस्टबस्टर. मगर पंडित जी कभी भी उनके कमेन्ट का जवाब में ई नाम नहीं इस्तेमाल किये. ऊ कहा करते थे भूतभंजक. ई नाम का सब्दानुबाद एतना पसंद आया हमको, जेतना ओरिजिनल भूतभंजक महोदय को नहीं आया होगा. कम से कम डेढ़ दर्जन लोग को हम ई नाम बताए! अऊर आज जब कुछ लिखने का फुर्सत मिला अऊर पिछला दस-पन्द्रह दिन का घटना देखे त लगा कि एही सीर्सक सूट करेगा.

अभी हाले में ब्लॉग गायब होना, कमेन्ट हवा में बिला जाना (विलीन होना), मेल उड़ जाना जैसा घटना से लगभग हर टॉप के ब्लॉगर को परेसान होना पडा. हमरे साथ त लास्ट ईयर सॉरी पार-साल हुआ था. दू-चार लोग से बेचैनी में पूछे तब पता चला कि आग उधर भी बराबर लगा हुआ है. जब अपना बारे में पता चला था त हम बहुत परेसान थे, मगर जब अऊर लोग का बारे में सुने त तनी इत्मीनान हुआ. आदमी का सोभाव है- चलो दोसरा भी दुखी है, त अपना दुःख तनी हल्का हो जाता है. 

ई बार त बिस्तार से पाबला जी के पोस्ट पर पढ़े पूरा गूगल-पाबला जुद्ध परकरण तब समझ में आया कि केतना भयानक समस्या था. पिछला आक्रमण के बाद से हम अपना पोस्ट का ड्राफ्ट बाहरी हार्ड-डिस्क में रखने लगे. अब हमरे पास त बचाने के लिए न कोनो बिग्यान है, न इतिहास है, न साहित्य, न आध्यात्म.. ले देकर कुछ पुराना याद है, जो खाली बच्चा लोग को दे जाने के लिए लिख रहे हैं. कहीं भुला गया, त दोबारा लिखने में जिन्गी खल्लास हो जाएगा.

खैर, ई बार जब हम बच गए (अभी तक त बचले हैं), तब बुझाया कि अटैक खाली टॉप के ब्लॉगर लोग पर था. हम त अपना आँख से देखे तब पता चला. संजय@ मो सम कौन का कमेन्ट हमको मेल में देखाई दिया, मगर पोस्ट पर नहीं. हम कमेन्ट त साट दिए पोस्ट पर, बाकी उनको मेल करके आगाह किए. उनका जवाब आया कि अली साहब के पोस्ट पर भी उनका कमेन्ट ओही गति को प्राप्त हो गया है.

हमारा नया पोस्ट बहुत से लोगो के ब्लॉग-फीड में बहुत दिन से अपडेट नहीं हो रहा है. एही बात पर केतना लोग से हम सीत-जुद्ध भी छेड़ दिए. का करें एक तो आदमी, उसपर ब्लॉगर. अब बुरा त लगबे करता है. देवेंदर पांडे जी मन लगाकर मस्त बनारसी गीत लिखे अऊर कमेन्ट नदारद. पता चला कि सब स्पैम नामक सुरसा के पेट में जा रहा है. एकदम परेसानी का माहौल बना हुआ है.

ब्लॉग-बस्टर का आतंक फ़ैल चुका था. फेस-बुक पर भी लोग खुलकर अन्ना के माफिक इस ब्लॉग-बस्टर से लड़ाई का मंत्र बता रहे थे. पंडित जी भी एगो पोस्ट लिखकर  अपना कस्ट बयान किये. ऊ त मान भी बैठे थे कि क्वचिदन्यतोsपि के जगह सुबहे बनारस के नाम से नया ब्लॉग सुरू करना पडेगा. मगर भला हो उनके जय और वीरू का, तीनों बच गए. अनुराग जी भी अमेरिका में बैठकर ओहाँ से लोग को मंत्र बता रहे थे. हर कोइ मंत्र का पर्ची छपवाकर बाँट रहा था, जैसे एक टाइम पर लोग संतोषी माता का पोस्टकार्ड भेजता था. फेसबुक पर भी ओही हाल था. लोग उपाय बताते थे और कहते थे कि सेयर कीजिये. पाबला जी के ताजा पोस्ट के मुताबिक़ अटल जी का बात याद आता है कि “अब चलने की वेला आई!” 

अभी तक सबसे अच्छा बात ई हुआ कि ब्लॉग-बस्टर के आक्रमण से अभी तक किसी ब्लॉग के सहीद होने का कोनो खबर सुनने को नहीं मिला. 

निसांत मिसिर जी का बात कहें तो
“प्रचंड तूफ़ान जब धरती से टकराता है तब वायु और वर्षा प्रलय मचाती हैं. वृक्ष जड़ों से उखड़ जाते हैं, नदियां मार्ग बदल लेती हैं, यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्वत भी बिखरने लगते हैं. फिर भी ऐसे प्रकोप एक-दो दिन से अधिक नहीं ठहरते. सर्वनाश की शक्ति लेकर धावा बोलनेवाले तूफानों को भी अपना डेरा-डंडा समेटना पड़ता है.
नोट: इस आलेख में किसी भी व्यक्ति, पोस्ट अथवा ब्लॉग का लिंक नहीं दिया गया है. ये सभी इतने स्थापित लोग हैं कि उन्हें परिचय की आवश्यकता नहीं)