गुरुवार, 24 मार्च 2011

तुम बिन

पहिला बार कलकत्ता में मिले थे उससे. बस एही समझिए कि देखते ही एकबार में रीझ गए. उस समय जवान थे, काफी समय उसके साथ बीतने लगा. लगता था कि उसके बिना जीना मोसकिल हो जाएगा. कलकत्ता में रहकर भी राजनीति पर गरम गरम बहस करने का बेमारी हमको नहीं लगा. हमरे घर के आस पास भी ऑफिसे का लोग सब था. अब कहाँ फालतू टाइम बिताएं उनके साथ प्रोमोसन पालिसी, उपरवाले का बुराई, कर्मचारी लोग का आलसीपन के बारे में बहस करके. इसलिए हम ई सब से कट लेते थे अउर उसी के साथ जादा समय बिताते थे.

पहिला बार ओही समय हमको मोमिन के सेर का मतलब बुझाया कि

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता!

कोई दुराव छिपाव भी नहीं था हम दुनो के बीच काहे कि प्रेम त संदेह के जमीन पर पनपिये नहीं सकता है. हमको जो भी पूछना था उससे पूछ लेते थे साफ़ साफ़ अउर बिना कोई परहेज के, हमरा संदेह दूर भी हो जाता था. मगर उसका भोलापन देखिये, हमरे कोनों बात पर कभी संदेह तक नहीं की. ऐसा नहीं कि ऊ हमसे सवाल नहीं पूछती थी. बहुत कुछ ऊ भी हमसे पूछी, मगर आज करेजा पर हाथ रखकर मानते हैं कि बहुत सा बात उसको हम गलत बताए, बहुत सा बात छिपाए. प्रेम के बीच में ई सब होना चाहिए कि नहीं मालूम नहीं. मगर अनजान जगह में, अनजान ब्यक्ति से सब बात बताने में तनी डर त लगबे करता है. सो हम छुपा गए. बाद में सफाई देने का भी गुंजाइश नहीं रहा. न पूछा गया, न बताए. मगर आझो मन में मलाल है कि हम उसको ई नहीं बताए कि हम सादी सुदा हैं. ऊ पूछी तो थी एक बार. पहिला बार झूठ बोल गए थे हम, मगर दोबारा न ऊ कभी पूछी, न हम कभी बता सके.

कहते हैं कि दूर हो जाने से प्रेम अउर बढ़ जाता है. कलकत्ता छोडने के बाद सुरू सुरू में तो हमको बहुत अजीब लगा. उसके बिना सब सूना सूना लगता था. फिर आदत पड़ गया. हम अपना परिबार में रम गए अउर ऊ भी ठीके ठाक रही होगी. हम भी खोज खबर नहीं लिए.

दिल्ली जब आए तो उसको खोज लिए. इतना बड़ा महानगर में एक बार फिर हमको अपना भुलाया हुआ प्रेम वापस मिल गया था. हाँ इस बार प्रेम का रूप तनी बदल गया था. समय के साथ ऊ भी बदल गई थी. पहिले ऊ हमारे लिए एगो सूखा टहनी थी. मगर अब त एतना फैल गई थी कि का बताएं. उसका महानता देखिए कि हमसे हमरे गैरहाजरी के बारे में कुछ नहीं पूछी. न कोई उलाहना, ना सिकायत. ओही प्रेम अउर ओही खुला हिरदय, जो हम कलकत्ता में छोड़कर गए थे.

अचानक एक हफ्ता पहिले, ऊ हमको बिना बताए चली गई. अगल बगल से पूछे, उसके मकान मालिक को भी बोले, लेकिन सब बेकार. हमको लगा कि कहीं ऊ हमसे बदला तो नहीं ले रही है. एक एक करके हम अपना सब गलती याद किये. उसके मकान मालिक को हम दूनों के सम्बन्ध के बारे में मालूम था. ऊ हमसे केतना सवाल किया, हम सबका सही सही जवाब दिए. इस बार तो हम कुछ छिपाए भी नहीं.

एक दिन, दू दिन करते करते दस दिन बीत गया. मन उदास. किसी से बोलचाल नहीं कर पाए. इहाँ तक कि होली भी ब्लैक एंड वाईट हो गया. सबके बीच अकेला होने का दरद हमको समझ में आ गया था. कल उसका पता चला है, मगर मिल अभी भी नहीं पाए हैं. पता नहीं का हो गया है उसको. कहां चली गई है हमरी प्रिया, हमरी बेब्स नहीं, हमरी वेब दुनिया. दस दिन से ऑक्सीजन (वाई फाई) नहीं है और कल से तो बदन में तार लगाकर (लैन केबुल) ज़िंदा हैं.

चैतन्य भाई ने तो कह दिया कि अउर पंगा लो ऊपरवाले से, अब आप लोग कुछ प्रार्थना कीजिये. गरीबों की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा!

रविवार, 13 मार्च 2011

दूसरी माँ

आकासबानी पटना से बच्चा लोग का तीन ठो प्रोग्राम प्रसारित होता था. देहाती बच्चों के लिये घरौंदा (सुक्रवार साम), बहुत छोटा बच्चा लोग के लिये सिसु महल (बुधवार साम) अऊर बड़ा बच्चा लोग के लिये बालमण्डली (एतवार दोपहर). घरौंदा में दीदी भैया होते थे सीला डायसन (बाद में सीला शुक्ला) और भगवान साहू (कमलेश्वर के उपन्यास डाकबंगला पर बनी फिल्म में सिमी के साथ सहकलाकार थे), शिशु महल में खाली दीदी होती थीं, कुमुद सर्मा (साहित्यकार नलिन विलोचन शर्मा की पत्नी) और बालमण्डली में इला चतुर्वेदी और कुमार चंद्र गौड़. अब जईसे बॉलीवुड में आर्ट फिलिम, मेनस्ट्रीम फिलिम अऊर प्रादेसिक फिलिम का अलग अलग अस्थान है अऊर इनका हीरो हीरोईन भी अलग अलग हैं, वईसहीं इन तीनों प्रोग्राम का हीरो भी अलग अलग होता था. और कोई भी हीरो (बाल कलाकार) अपना प्रोग्राम छोड़कर दोसरा प्रोग्राम में भाग नहीं लेता था. घरौंदा में हम, सिसु महल में राजू (राजकुमार मेहरोत्रा) अऊर बालमण्डली में नंदन अऊर बमबम (दयाशंकर तिवारी).

एक रोज़ हम सब बच्चा लोग के साथ रिहर्सल के लिये स्टूडियो में इंतजार कर रहे थे. सीला दी रिहर्सल करवाती थीं, लेकिन ऊ कहीं दोसरा काम में बिजी थीं. इसलिये हमलोग आपस में रिहर्सल करने लगे. थोड़ा देर बाद सीला दी आईं अऊर सबको रिहर्सल करने के लिये बोलकर हमको अपने साथ ले गईं. ऊ कोई नाटक का रिकॉर्डिंग में ब्यस्त थीं.

हमको बोलीं, “तुमको बस एक काम करना है.”

हम डरकर बोले, “दीदी हमसे नाटक नहीं होगा. कभी किये भी नहीं हैं.”

ऊ बोलीं, “कोई डायलॉग नहीं बोलना है तुमको. बस इशारा करते ही रोना है जोर जोर से. और इशारा करते ही चुप हो जाना है.”

रिकॉर्डिंग सुरू हुआ अऊर हमको जईसे इसारा मिला हम खूब जोर जोर से रोना सुरू कर दिये. मगर तमासा तब हुआ जब इसारा करने के बाद भी रोलाई नहीं रुका हमारा. दूनो आँख से आँसू टप टप गिर रहा था अऊर रोलाई रुकने का नाम नहीं ले रहा था. रीकॉर्डिंग रोक दिया गया अऊर सीला दी हमको बाहर ले गईं. बाद में सब लोग हमको बधाई दिया. मगर हमको समझे में नहीं आ रहा था कि हम अईसा का कमाल कर दिये थे कि हमको लोग एतना साबासी दे रहा था. हमको साबासीदेने वाला में हमरी पुस्पा दी (पुष्पा अर्याणि) भी थीं.

इस दिन के बाद गजब परिबर्तन हुआ. पुस्पा दी हमको ड्रामा के लिये अप्रूभ कर दीं अऊर हम पर्मोसन पाकर बालमण्डली में सामिल हो गये. इसके बाद हम बच्चा से किसोर अऊर किसोर से जवान हुए. पुस्पा दी के साथ रहकर बहुत कुछ सीखने को मिला. ब्रॉडकास्टिंग का हर छोटा बड़ा डिटेल, आवाज का थ्रो, स्क्रिप्ट लिखना, डबिंग सबकुछ. कहती थीं कि तुम्हारे बिना तो हम एकदम अपाहिज हो जाते हैं. पैतालीस साल के उमर में, लम्बा अनुभव के बाद कोई 15 साल के बच्चा के लिये ऐसा कहे तो बिस्वास नहीं होता है.

हम आज भी मानते हैं कि हमारे अंदर जो भी कलाकार वाला गुन देखाई देता है ऊ सब उनका दिया हुआ है. हमरे अंदर के कलाकार को ऊ जनम दी हैं, हमरी दूसरी माँ! जब कोई नाटक का स्किप्ट उनको मिलता, तो घण्टा भर हमसे बहस करती थीं कि कौन सा चरित्र के लिये किसको लिया जाना चाहिये. कहाँ मनोरमा बावा को लेना है अऊर कहाँ सत्या सहगल को, किसके लिये सतीश आनंद ठीक रहेंगे और किसके लिये अखिलेश या प्यारे मोहन. अऊर खाली बहस नहीं, अगर हम जिद पर अड़ गए कि इस कैरेक्टर में यही ठीक रहेंगे तो हमारा बात कभी टालती भी नहीं थीं. 15 साल और 45 साल का अंतर बुझाएबे नहीं करता था. ऊ खुद भी बहुत अच्छा कलाकार थीं. देहातीप्रोग्राम चौपाल में गौरी बहिन के रूप में भाग लेती थीं.बहुत सा नाटक में भी ऊ काम की थीं, रेडियो अऊर मंच पर. लेकिन बाद में छोड़ दीं. केतना बार हम भी जिद किए, मगर नहीं मानीं.

बाद में हमारा नौकरी हुआ और हम बाहर चले गये पटना से, तइयो हमारा सम्बंध बना रहा, बल्कि घरेलू हो गया. कलकत्ता से आते तो जरूर मिलने जाते थे उनके घर. अपना नाती पोता नातिन के बारे में बतातीं. एकदिन अचानक टीवी पर समाचार आया कि पुस्पा दी का देहांत हो गया. हम उस समय पटना में थे. हमको बहुत सदमा हुआ. लेकिन हम उनका अंतिम दर्सन करने के लिये नहीं गए. हमको लोग बहुत सा बात सुनाया, मगर आज तक उनके देहांत के बाद हम उनके घर नहीं गए. हमरे लिए ऊ अभी तक जिंदा हैं, राजेंद्र नगर पटना के रोड नम्बर चार वाला मकान में.

सोमवार, 7 मार्च 2011

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री - एक गुमनाम कवि


बंगाल में एगो अजीब रिवाज है. मगर रिवाज सवाल  उठाने के लिये होता नहीं है, बस पालन करने के लिये होता है. नहीं पालन करना है तो मत करे कोई, मगर सवाल उठाने से जवाब मिलने का उम्मीद बहुत मोस्किल है. काहे कि रिवाज एतना पुराना होता है कि जवाब के लिये का मालूम केतना पीढ़ी पीछे जाना पड़े. खैर, हम कह रहे थे कि बंगाल में एगो अजीब रिवाज है. दसहरा के समय दुर्गा जी का मूर्ति बनाने के लिये बेस्या के घर का मट्टी इस्तेमाल करना पड़ता है. अब इसके पीछे का मत  भगवान जाने. कुछ लोग का कहना है कि बेस्या के पास जाने के पहले हर आदमी अपना सराफत अऊर अच्छाई बाहर छोड़ देता है. इसलिये समाज का हर हिस्सा का अच्छाई मट्टी में पाया जाता है.
खैर जो भी हो मगर बिहार के मुजफ्फरपुर नामक सहर में बात साच्छात देखाई देता है. मुजफ्फरपुर का लाल बत्ती छेत्र, चतुर्भुज अस्थान कहलाता है. एही मोहल्ला में 95 बर्सीय एगो महान कबि रहते हैं, आचार्य जानकी बल्लभ सास्त्री. अब बिहार का नाम सुनकर सबके दिमाग में दिनकर, रेणु, नागार्जुन आदि का नाम आता है. मगर सायदे कोई होगा जिसको सास्त्री जी का नाम याद हो. कम से कम बिहार का नाम से इनका नाम जोड़ना बहुत दूर का बात बुझाता है.
हमरा इनसे पहिला परिचय अपना आठवाँ क्लास का हिंदी पद्य संग्रह से हुआ. सास्त्री जी का एगो कबिता हम लोग का कोर्स में था मेघगीत. जानकी बल्लभ सास्त्री जी का नाम सुनने से आज भी ओही याद आता है कि प्रस्तुत पंक्तियाँ जानकी बलभ सास्त्री द्वारा रचित मेघगीत कबिता से ली गई हैं. अऊर कुछ  साल बाद पहिला बार उनको अपना कोर्स का किताब से निकलकर आकासबानी पटना में कबिता पाठ करते हुये देखे. बहुत हल्का सा याद है अऊर उनका चेहरा तो तनिको याद नहीं.
अचानक एक रोज देखे कि मनोज कुमार जी अपने ब्लॉग पर सनिबार के दिन फुर्सत में सृन्खला के अंतर्गत सास्त्री जी के बारे में धारावाहिक लिखना सुरू किये. पूरा धाराबाहिक सास्त्री जी से उनके घर पर मुलाकात के आधार पर अऊर उनका साक्छात्कार पर आधारित था. सौ में पाँच कम यानि 95 साल का उमर में जेतना पुराना बात याद करके सास्त्री जी जेतना बात बताए, मनोज जी सब बात को सिलसिला से प्रस्तुत करने का कोसिस किये. उनका जीबन, कबिता, लोग-बाग अऊर सबसे अद्भुत उनका गऊ माता के प्रति प्रेम. सब कुछ आँखों देखा अपने ब्लॉग में प्रस्तुत किये.
देखकर लगा कि गुमनामी में जीबन बिताते हुए सास्त्री जी के जिन्न्गी का बहुत कुछ अनछुआ पहलू था जिससे किसी का कोनो परिचय नहीं हुआ कभी. हमको भी लगा कि जिनका लिखा पढकर हम कबिता को समझने का कोसिस करते थे, उनको देखने समझने का मौका हमको एतना साल बाद दोबारा मिला.
आज वागर्थ पत्रिका के मार्च 2011 के अंक में प्रकासित मनोज जी के ओही आलेख को देखकर लगा कि मनोज जी अपना सहित्त प्रेम अऊर राजभासा के प्रति समर्पन के माध्यम से जानकी बल्लभ सास्त्री जी को उनके अंतिम समय में जो सम्मान दिलाये हैं, सराहनीय है. हमारेप्पस कहने चाहेबतानेके लिये कुछ नहीं है, लेकिन हमको भी लगा कि आज हम उनके बारे में दू सब्द आप लोगों के साथ बाँटेंगे तो हमारे मन को भी संतोस होगा कि एही बहाने हम भी सास्त्री जी का चरन स्पर्स करने का सौभाग्य पा सके.
उनका एगो कबिता का आनंद आप भी लीजियेः

खिंचता जाता तेज, तिमिर तनता, क्या फेरा
अरे, सवेरा भी होगा या सदा अँधेरा ?

रहे अँधेरा, ये समाधियाँ दिख जायेंगी -
घास-पात पर शबनम से कुछ लिख जायेंगी !
कभी पढ़ेंगे लोग-न सब दिन अपढ़ रहेंगे,
सब दिन मूक व्यथा न सहेंगे, कभी कहेंगे -

'अंधकार का तना चंदोवा था जन-भू पर,
दीप उजलते, जलते थे, बस ऊपर-ऊपर ।
जीवित जले हुए कीड़ों की ये समाधियाँ,
दीप जलाना मना, यहाँ उठती न आँधियाँ ।

दीप जलाना अगर रस्म भर, इधर न आना !
दीप दिखाकर अंधकार को क्या चमकाना !!

आचार्य जी, हम आपको बिस्वास दिलाना चाहते हैं कि आज आपके बारे में हमारे मन का बात खाली रस्म अदा करने के लिये दीप जलाने जैसा नहीं है. मनोज जी के बहाने हम भी आपका चरन स्पर्स कर आसीस लेना चाहते हैं!
साक्षात्कार यहाँ देखें:

मंगलवार, 1 मार्च 2011

मुल्ज़िम, मुजरिम और सज़ा

अभी हफ्ता दस दिन पहले दिल्ली में हमरे इस्कूल का अलुम्नाई मीट था. अचानक फोन पर निमंत्रन पाकर हम हक्का बक्का रह गये. ई सोचकर कि एतना दिन के बाद केतना पुराना लोग से मुलाकात होगा, मन में अजीब तरह का धुकधुकी होने लगा. ऊ सब बिछड़ा हुआ दोस्त लोग का चेहरा, बस ओहीं पर फ्रीज हो गया था दिमाग में, जहाँ से हम लोग अलग हुए. अपना खुद का उमर एतना हो जाने के बाद भी ऊ दोस्त लोग को हम बचपने के जैसा चेहरा में देख रहे थे. लग रहा था कि हम बुजुर्ग हो गये हैं अऊर हमरा दोस्त सब अभी भी ओही चौदह पंदरह साल का है.

जब पहुँचे तो देखे कि हमसे भी सीनियर लोग आए हुए थे. एकदम भावुक कर देने वाला मौका था. एक बार फिर से ओहीं मंच पर 1965 से लेकर 1990 के बीच का पूरा जमाना गुजर गया. हमको डॉ. राही मासूम रज़ा का बात याद आ गया कि यादें बादलों की तरह हल्की फुल्की चीज़ नहीं होतीं कि आहिस्ता से गुज़र जाएँ, यादें एक पूरा ज़माना होती हैं और ज़माना कभी हल्का नहीं होता. पूरा चौथाई सताब्दि का समय हमारे सामने था और उसको फिर से जीते हुये, सब लोग एतना एक्साइटेड था कि पूछिये मत. इस्कूल, हेडमास्टर साहब, सिच्छक लोग, छुट्टी, सोर सराबा, हल्ला हंगामा, नल का पानी, खेल का मैदान, इस्कूल से भागकर मैच देखना अऊर सिनेमा देखना, सिच्छक का नकल करना… सब कुछ एतना सहजता से लोग बोल रहे थे कि जईसे बस कल्हे परसों का बात हो. दूगो बात गौर करने वाला था. पहिला कि हमरा इस्कूल सहसिच्छा वाला इस्कूल नहीं था, इसलिये कोई भी आदमी अपना पहिला पहिला प्यार का चर्चा नहीं किया, अऊर दोसरा बात कि लगभग हर आदमी सिच्छक का तारीफ के साथ साथ, उनसे पिटाई का बर्नन भी बहुत मन लगाकर किया. किसी के मन में कोनो मलाल नहीं था कि ऊ फलाना मास्टर से पिटाया था. लोग हँस हँसकर पिटाई का कहानी सुना रहे थे.

आजकल तो इस्कूल में पिटाई होने पर बात मीडिया अऊर अदालत तक पहुँच जाता है. हमारे टाइम में ऐसा नहीं होता था. उस समय में सजा एगो लड़का को मिलता था लेकिन पूरा क्लास काँपने लगता था. सजा का मतलब एगो बच्चा को उसके गलती का एहसास दिलाना नहीं, पूरा क्लास को उस तरह का गलती नहीं करने देने का माहौल बनाना होता था. एक बच्चा को क्लास के सामने मुर्गा बनाने पर बाकी सब को लगता था कि अगर हम गलती करेंगे तो हमको भी एही बेइज्जती झेलना पड़ेगा. इसलिये एक बार बदमासी करने के पहले, सौ बार सजा के बारे में सोचता था. क्लास के सामने मुर्गा बनना, बेंच पर खड़ा हो जाना, क्लास से बाहर निकलकर खड़ा किया जाना, हाथ पर छड़ी से पिटाई होना.. ई सब सजा इसलिये कि गलती दोहराया नहीं जाए अऊर दूसरा कोई भी उसको दोहराने का कोसिस नहीं करे.

संजुक्त अरब अमीरात में सारजाह का मुख्य चौराहा रोला एस्क्वायर... जिसको समुद्र के किनारे से जोड़ने वाला सड़क बैंक स्ट्रीट कहलाता है. इसके दूनो तरफ दुनिया भर का तमाम बैंक का साखा है. रास्ता के बीच में सारजाह का पुराना किला है,जिसको अरबी में अल हिस्न कहते हैं. आजकल उसको म्युजियम बना दिया गया है. किला के बाहर खूब चौरस चबूतरा बना हुआ है जिसमें किला के दरवाजा पर तोप रखा हुआ है. हमारे घर के ठीक सामने होने के कारन एकदम साफ देखाई देता था किला. लेकिन एक बात पर हमको बहुत आस्चर्ज होता था कि किला के ठीक सामने चबूतरा पर एगो ऊँचा सा लकड़ी का खम्बा बना हुआ था. पुराना खम्बा, किला के रेसम का चादर पर टाट के पैबंद जईसा नजर आता था. हम उसको रोज देखते थे अऊर रोज सोचते थे कि जब सबकुछ नया हो गया था तो इसको काहे नहीं हटा दिया गया वहाँ से. अऊर ई है का चीज जो एकदम किला के दरवाजा के सामने बना हुआ है.

एक दिन ऊ म्यूजियम के अंदर घूमने चले गये, तब भेद खुला. बास्तव में ऊ मजबूत लकड़ी का खम्बा अपराधी को सजा देने के काम में आता था. ओही खम्बा में बाँधकर अपराधी को कोड़ा लगाया जाता था. किला के बाहर, खुला मैदान में, आने जाने वाला सब लोग के सामने, ताकि पूरा परजा देखे कि अपराध करने का सजा का होता है अऊर इसमें केतना तकलीफ होता है. अपराधी अपराध दोहरा नहीं पाए अऊर दोसरा कोई अपराध करने का हिम्मत नहीं जुटा पाए.

अपना देस में रोज नया घोटाला एतना आसानी से होता रहता है कि पूछिये मत. कारन खाली एतना कि भ्रस्ट अधिकारी को पता है कि उसको सजा तो होने वाला नहीं है. आराम से माल अंदर किये जाओ. कोई खून करके आराम से घूमता रहता है, कोई गबन करके.

कुतुब मीनार के अहाता में एगो लोहा का खम्बा बना हुआ है. कहावत है कि इसके साथ पीठ सटाकर अगर कोई पीछे के तरफ अपना दोनों हाथ से ऊ खम्बा को जकड़ लेता है, तो उसका मन का कोई भी इच्छा पूरा हो सकता है. अब तो बंद कर दिया गया है अईसा करना. आज जरूरत है उस खम्बा को इण्डिया गेट के पास लगाने का, जहाँ जनपथ राजपथ से मिलता है. अऊर देस का तमाम घोटाला में लिप्त अधिकारी अऊर नेता को ओही खम्बा से बाँधकर कोड़ा लगाने का. मगर बिकट समस्या एही है कि जबतक अपराध साबित नहीं हो जाए, मुजरिम मुल्जिम कहलाता है और मुल्जिम सम्मानित ब्यक्ति होता है. मुल्जिम को तो इण्डिया गेट के सामने खम्बा से बाँधकर कोड़ा लगाना सम्भब नहीं. आफ्टर ऑल देस में प्रजातंत्र जो है!! और कानून भी कहता है कि सौ अपराधी भले छूट जाएँ, कोनो निरपराध को सजा नहीं होना चाहिये!