मंगलवार, 29 मई 2012

अब तो सचमुच चला बिहारी!!


एगो बहुत मसहूर कहावत है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है. लेकिन तेरह साल का टाइम कोनो एतना बड़ा टाइम नहीं है कि उसको इतिहास जईसा कहा जाए. फिर भी जो हुआ ऊ एकदम हू-ब-हू दोहराने वाला खिस्सा हो गया. आस्चर्ज त नहिंये हुआ उसपर, अफ़सोस बहुत हुआ. मन को समझा लिए कि ओशो कहते हैं कि दुःख को पलट कर देखियेगा त उसमें खुसी देखाई देगा. जादातर आदमी पलट कर नहीं देखता है एही से दुःख, दुःख मालूम पड़ता है.

तेरह साल पहिले कलकत्ता में एगो अस्टाफ के बिआह में हमारा पूरा ऑफिस गया हुआ था. हमरे बॉस भी थे. ग्रुप में एन्ने-ओन्ने का बात चल रहा था. अच्छा बात एही था कि ऑफिस का बात कोई नहीं बतिया रहा था. बात होने लगा रेलगाड़ी में सफर करने का अऊर ओही में बात निकल आया गाड़ी के डिब्बा में सामान चोरी होने का. हमरे बॉस के पास भी एगो अनुभव था जब उनका गया जंक्सन इस्टेसन पर कोई सामान चोरा लिया. ई दुर्घटना सुनाने के बाद ऊ जो कन्क्लूजन बताए ऊ तनी डायलॉग में सुनिए.
“अरे, आपलोगों को क्या पता, बिहारी चोर होते हैं!”
“नहीं सर! रेलवे स्टेशन की चोरियों का नेचर पूरे देश में एक जैसा होता है!”
“आप तो बोलेंगे ही वर्मा जी! मगर जो कहिये, सारे बिहारी चोर होते हैं!”
पहिले “बिहारी चोर” अऊर बाद में “सारे बिहारी चोर” सुनकर त हमरे देह में आग लग गया. हम भी आव देखे न ताव अऊर बिना आगा-पीछा सोचे तड़ से बोल दिए, “मगर इंटरनेशनल क्रिमिनल्स की लिस्ट में अगर भारत के टॉप टेन क्रिमिनल्स का नाम देखा जाए तो उनमें पाँच आपके अंचल के हैं, कहिये तो नाम गिनाऊँ! और संजोग से उसमें बिहारी कोई नहीं!”
माहौल अचानक सीरियस हो गया.

आगे बताने का जरूरत नहीं होना चाहिए कि हमारा ट्रांसफर ऑर्डर दू-चार दिन में हमरे सामने आ गया. ऊ समय पिताजी का तबियत बहुत खराब था. ट्रांसफर रोकवाने का बहुत कोसिस किये. जेतना लोग हमको जानता था, हमारा काम सराहता था, सबको बोले. सबलोग बोला कि कोई मोसकिल काम नहीं है, मगर अफ़सोस लौटकर खुसखबरी सुनाने कोई नहीं आया. खुसखबरी का, ईहो कहने कोई नहीं आया कि सौरी हम आपका मदद नहीं कर सके! हमरे साथ हुए सोलह लोग के ट्रांसफर में से पन्द्रह लोग को मन मुताबिक़ पोस्टिंग मिल गया, बस हमको छोडकर!  बिहारी जो ठहरे!

आखिरी उम्मीद था हमरे पुराने बॉस श्री माधव राव पर. मुम्बई में उनको फोन लगाकर बताए अपना मजबूरी अऊर बोले कि ‘हाँ’ या ‘ना’ जो भी हमको बता दें ताकि हम झूठा उम्मीद पर नहीं रहें. दू दिन बाद उनका फोन आया. आझो उनका बात हमरे कान में गूंजता है.
“सौरी, वर्मा जी! आई कान्ट हेल्प यू आउट!! लेकिन बड़े होने के नाते एक बात कहूँगा कि परमात्मा की इच्छा के विरुद्ध मत जाइए. हो सकता है उसने आपके लिए कुछ और भी अच्छा सोच रखा हो.”

हमको लगा कि सांत्वना दे रहे हैं. हम जाकर ज्वाइन कर लिए. दू महीने के अंदर पिताजी का देहांत हो गया अऊर साल भर के अंदर हमरा सेलेक्सन बिदेस में पोस्टिंग के लिए हो गया. हम घर के लोग को खुसखबरी सुना रहे थे कि माधव राव साहब का बात याद आया. रात को उनका फोन आया बेंगलोर से. “वर्मा जी! कोंग्रचुलेशंस!! डू यू रेमेबर माई वर्ड्स!” अऊर हमरे मुंह से कोनो बात नहीं निकल सका. हम बस “थैंक्स सर” कह पाए!!

आज तेरह साल के बाद फिर से ओही परिस्थिति में एक महीना से घुट रहे हैं. बेटी का दसवां का बोर्ड है अगिला साल अऊर हमरा ट्रांसफर सताईस लोग में सबसे दूर कर दिया गया है. सब लोग के आगे मजबूरी बताकर देख लिए, गिडगिडाकर, समझाकर देख लिए. मगर मदद करने का भरोसा दिलाकर जो गया ऊ दोबारा लौटकर नहीं आया.

बस दू दिन बाद ई सहर से दाना-पानी उठ जाएगा. नया जगह, नया जिम्मेवारी के साथ पता नहीं आप लोग से एतना रेगुलर रूप से मिलना हो पायेगा कि नहीं. सायद नहीं, चाहे कभी-कभी! आँख बंद करके एही सब सोचते हुए माधव राव सर का बात दिमाग में आ रहा था. किताब का पन्ना फडफडाने का आवाज से आँख खुला, किताब बंद करने चले त देखे कि लिखा है:
मैं लोगों के बीच से गुज़रता हूँ और आँखें खुली रखता हूँ. मैं उनलोगों के सद्गुण नहीं अपनाता इसके लिए वे मुझसे नाराज़ हैं. वे मुझसे बेहद नाराज़ हैं, क्योंकि मैंने उन्हें बता दिया है कि छोटे आदमियों के लिए, छोटी मर्यादाएं ही ज़रूरी होती हैं. नाराज़ लोग आग के चारों ओर बैठकर कहते हैं, देखो यह भयानक आदमी और क्या विपत्ति लाता है. उन्हें बौनी मर्यादाओं से डर नहीं लगता. उनके साथ वे सहज ही हिलमिल जाते हैं. अपने मन में वैसे वे सिर्फ एक बात ही चाहते हैं कि उन्हें कोई चोट न पहुंचाए. हालांकि वे इसे सद्गुण मानते हैं मगर वह दरअसल कायरता है. मैं उनके बीच से गुज़रा और मैंने अपने कुछ शब्द वहाँ गिरा दिए. उनकी समझ में नहीं आया कि वे उन शब्दों को फेंक दें या वहीं पड़ा रहने दें. तब मैंने उन्हें ललकार कर कहा – तुम अभिशप्त हो कि कायर हो. जरथ्रुष्ट्र का कोई ईश्वर नहीं, इसलिए वह बुरा नहीं है. मैं ईश्वरहीन हूँ इसलिए सच कहता हूँ और सत्य को तुम्हें भी सुनाता हूँ. अगर मेरे शब्द बेकार गए तो तुम अपने छोटे-छोटे सद्गुणों और नन्हें-नन्हें गुनाहों के साथ नष्ट हो जाओगे!
(नीत्शे – जरथ्रुष्ट्र ने कहा)

सोमवार, 7 मई 2012

हर खुशी हो वहाँ


रात के गहरे से सन्नाटे में यूं ही जो कभी,
छेड़ देता है कोई दिलरुबा के तार पे धुन
एक मीठा सा कोई सुर चुभोता है दिल में
राग भैरव, कभी मालकौंस, जयजयवंती कभी
क्यों मुझे लगता है सरगम में छिपा नाम तेरा!

जब अदाकारी कभी देखता नसीर की हूँ
या कि संजीव की, उत्तम की या अमित जी की
या कोई फिल्म हो शरलॉक की या फेलू की
बक्शी ब्योमकेश हों या सत्यजीत राय की फिल्म
उन अदाकारी के फन में मुझे क्यों दिखता है तू!

 (अनुभव प्रिय)

हों कहानी जो रस्किन बोंड की या राय की
स्वामी हो मालगुडी का या हो विवेकानंद
या कि हो शायरी कैफी की, निदा, साहिर की,
शेक्सपियेर के हों नाटक, या हों गिरीश करनाड
मुझको हर लफ्ज़ में क्यों शक्ल तेरी दिखती है!

रंग वॉन गॉग के हों या पिकासो का क्यूबिज्म
लाइन हुसैन की और बोस के उस गाँव का रूप
जानवर बावा के, और राजा रवि के पोर्ट्रेट
स्याही हो, कोयला हो, पेन्सिल हो, कनवास या बोर्ड
मुझको हर रंग में क्यों तेरी छटा दिखती है!

एक राजा के किसी बेटे के बारे में कभी
एक नजूमी ने कहा था कि ये होगा सम्राट
और न सम्राट हुआ तो ये महात्मा होगा
तुझको मैं बस ये दुआ देता हूँ बेटे मेरे
तू बने जो भी बस उस फन में मुकम्मल बनना!
तुझमें बस अपने बुजुर्गों की झलक दिखती है!!


सालगिरह मुबारक!!!
वत्स अनुभव प्रिय!!

बुधवार, 2 मई 2012

बंगाल का जादू


बंगाल का जादू एतना मसहूर रहा है कि उसका सम्मोहन से बचना मोसकिल है. अऊर ई जादू भी अईसा कि जो इसके सम्मोहन में पड़ा, उसके लिए त बस उससे निकलना लगभग असम्भब है. पाँच-छौ साल बंगाल में रहने के बाद हम आजतक ऊ जादू से बाहर नहीं निकल पाए हैं. एगो अजीब “मिडास टच” है ई सहर में, जिसको छू देता है उसको अंदर से सोना बना देता है. कला, साहित्य, संस्कृति अऊर परम्परा का गंगा भी है ई सहर अऊर सागर भी.

एही सहर में एगो नौजवान सांति-निकेतन के पाँच साल का पढाई बीच में छोडकर, ब्रिटिस बिज्ञापन कंपनी में काम करने लगा. काम के साथ-साथ ऊ “सिगनेट प्रेस” से छपने वाला दू ठो किताब जिम कॉर्बेट का “मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊँ” अऊर जवाहर लाल नेहरू का “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” का कवर डिजाइन किया. बिज्ञापन कंपनी, जहां ऊ नौकरी करता था, के तरफ से उसको लन्दन भेजा गया. ओहाँ एक रोज ऊ देखने चला गया एगो सिनेमा – इतालवी सिनेमा Ladri di biciclette (बाइसिकल चोर).” सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के साथ ही ऊ नौजबान अपना जिन्नगी का सबसे बड़ा फैसला करता है कि उसको बस सिनेमा बनाना है. अऊर उसका ऊ फैसला उसको बिश्व सिनेमा का महत्वपूर्ण नाम बना देता है.
 (पेन्सिल स्केच - मेरे पुत्र अनुभव प्रिय द्वारा)

हम इयाद कर रहे हैं मसहूर फिल्मकार सत्यजीत राय को. एक आदमी के अंदर एतना पर्तिभा देखकर कभी-कभी भगबान के पक्षपाती होने का भरम पैदा हो जाता है. बास्तब में फिल्म बनाना अपने आप में एगो ऐसा आर्ट है, जो एक आदमी का सोच से सुरू होता है अऊर कई लोग मिलकर ऊ सोच को पर्दा पर उतारने में सफल होता है. लेकिन कभी ध्यान से सोचकर देखिये कि हमारा सोच को दोसरा आदमी कैसे महसूस कर सकता है. सायद एही कारण है कि बहुत सा साहित् को जब सिनेमा के पर्दा पर उतारा गया त कम से कम ऊ रचना के लेखक को पसंद नहीं आया.

सत्यजीत राय एही बात नहीं पसंद करते थे. कहानी के चुनाव के बाद, पूरा कहानी को अपने अंदर उतार लेते थे, सही माने में कंसीभ करना या गर्भ धारण करना जईसा. उसके बाद पटकथा, संबाद अऊर सेट डिजाइन का स्केच अपने आप तैयार करते थे. उनका हर स्क्रिप्ट में सेट का डिटेल देखकर दंग हो जाना पड़ता है. हर चरित्र का स्केच ताकि मेक-अप करने वाला बूझ सके कि फलाना कैरेक्टर कैसा लगता है, क्या पहनता ओढता है, कईसा देखाई देता है, कइसे खडा होता है, बैठता है... हर चरित्र का पूरा डिटेल स्केच में. वइसहीं सेट का स्केच, फर्नीचर का पोजीसन, लाईट केतना है, कहाँ से आ रहा है, कौन कहाँ खडा है या बैठा है.

एक एक डायलॉग पर मेहनत. “शतरंज के खिलाडी” सिनेमा के बाद ऊ बोले कि हमको भासा में परेशानी होता है, इसलिए हम हिन्दी/उर्दू/हिन्दुस्तानी में सिनेमा नहीं बना सकते हैं. इसमें अभिमान से जादा, उनका ईमानदारी झलकता है कि अपना कमी मान लिए. उनका सुरू का सिनेमा में पंडित रवि शंकर, विलायत खान साहब अऊर अली अकबर खान साहब संगीत दिए, लेकिन सत्यजीत राय का मानना था कि उनके मन मुताबिक़ काम नहीं होने पर चोटी के संगीतज्ञ लोग से बहस नहीं किया जा सकता, इसलिए बाद के सिनेमा में खुद संगीत देने लगे. एही नहीं, सुब्रत मित्र, जो उनके फोटोग्राफर थे, के साथ अनबन होने पर ऊ फोटोग्राफी भी खुद करने लगे. एडिटर त ऊ थे ही बढ़िया. लोग बताता है फोटोग्राफी खुद करने से उनको एगो फायदा ईहो हुआ कि ऊ एडिटिंग साथे-साथ कर लेते थे. एगो आदमी लेखक, पटकथा-संबाद लेखक, सेट डिजाइनर, संगीत निर्देसक, फोटोग्राफर, एडिटर सब हो अईसा बहुत मोसकिल है मिलना. सायद एही कारण था कि उनको देस-बिदेस में बराबर सम्मान मिला.

हम जानकर इहाँ पर उनका सिनेमा का नाम अऊर काम पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, काहे कि ऊ सब त नेट पर उपलब्ध है. हम त बस एही बताना चाह रहे हैं कि सत्यजित राय के महानता में उनका समर्पण का सबसे बड़ा जोगदान है. एगो अऊर बात है, उनके साथ. एक तरफ ऊ समाज के बहुत सा सरोकारी, जटिल अऊर चिंता करने वाला बिसय पर सिनेमा बनाते हैं, दोसरा ओर बच्चा लोग के लिए भी सिनेमा ओतने ईमानदारी से बनाते हैं. एही नहीं, उनका लिखा हुआ उपन्यास अऊर कहानी आझो बच्चा लोग को रहस्य रोमांच का दुनिया में ले जाता है. फेलु दा उर्फ प्रदोस चंद्र मित्तर, तोपसे चाहे प्रोफ़ेसर संकू... ई सब काल्पनिक चरित्र बंगाल के संस्कृति का हिस्सा है, ओइसहीं जइसे ई सब चरित्र के रचनाकार सत्यजीत राय, जिनके हर जासूसी उपन्यास या कहानी के पीछे एगो सार्थक तथ्य छिपा होता था, चाहे कोनो न कोनो नया जानकारी.

गजब के सपना देखने वाले इंसान थे अऊर सपना को हू-ब-हू पर्दा पर उतार देना, अईसा कि देखने वाला को कहीं भी कोनो मिलावट नजर नहीं आये. सत्यजीत राय, हमरे भी पसंदीदा फिल्मकार/उपन्यासकार हैं अऊर हमरे बेटा के भी, जबकि हम दूनो में एक पीढ़ी का फासला है. मगर रचनात्मकता में सत्यजीत राय पुल हैं, दोनों पीढ़ी को जोड़ने वाले.

आज सत्यजीत राय का जन्मदिन है!!