रविवार, 25 नवंबर 2012

इबादत: एक नाट्य-रूपांतर


जेफरी आर्चर का एगो कहानी संकलन है जिसका नाम है “ट्विस्ट इन द टेल” माने कहानी में पेंच! ई बात त मुहावरा के तरह इस्तेमाल होने लगा है अऊर खासकर फ़िल्मी दुनिया में त बिना इसके कोनो कहानी बन ही नहीं सकता. कहानी में कोनो न कोनो पेंच होना ही चाहिए, चाहे बचपन का बिछडा हुआ भाई का पेंच, चाहे पैदा होते ही बदला गया बच्चा का पेंच, चाहे पति/पत्नी के मरकर अचानक ज़िंदा सामने आ जाने का पेंच! पेंच नहीं त कहानी नहीं. मगर कोनो घटना को पेंच बनाकर कहानी लिखने वाले कथाकार के बारे में कभी सोचे हैं! ऐसा पेंच जो कहानी के अंत में अचानक आपके सामने आता है अऊर आपको एकदम अबाक कर देता है. आँख से आंसू निकलने लगता है कभी कभी. अइसा कहानी लिखने वाले महान कथाकार हैं ओ. हेनरी! उनका कहानी The last leaf, Gift of Magi, A service of love या Green Door एही बात को साबित करता है.

हमारे बेटा अनुभव प्रिय को ई जिद था कि उनको ओ. हेनरी के एगो कहानी को नाटक में रूपांतरित करना है और उसको अपनी बुआ अर्चना चावजी के साथ नाटक के रूप में पॉडकास्ट करना है. एही नहीं हमको भी गेस्ट अपीयरेंस करना होगा. खैर सबकुछ ओही किया अऊर उसका मेहनत और बुआ-भतीजा के अभिनय से सजा हुआ नाटक को जब ठाकुर पद्म सिंह जी ने पार्श्व-संगीत से सजा दिया त नाटक जीवंत हो उठा.

हम अभी कुछ नहीं कहेंगे, बस एतना कि ई नाटक आप इहाँ पढ़ सकते हैं और “मेरे मन की” पर सुन सकते हैं. मगर सुनिए ज़रूर थोड़ा समय निकालकर. हम वादा करते हैं कि द मेकिंग ऑफ इबादत’ लेकर जल्दिये हाजिर होंगे! तब तक के लिए... मजा लीजिए एगो बेहतरीन कहानी का और चार अलग-अलग सहर में रह रहे लोग के सम्मिलित प्रयास का.



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कथा: ओ. हेनरी की A Service of Love

पटकथा व संवाद: अनुभव प्रिय

संवाद-संपादन: सलिल वर्मा

पार्श्व-संगीत संयोजन: ठाकुर पद्म सिंह

पात्र – परिचय

(जिस क्रम में वे नाटक में प्रकट होते हैं)

मकान मालिक: सलिल वर्मा
नलिनी: अर्चना चावजी
अभिनव: अनुभव प्रिय



(कमरे की चौखट पर गुस्से में चिल्लाता हुआ मकान-मालिक किराए की माँग कर रहा है और नलिनी घर के काम के बीच हाँफती हुई जवाब देती जा रही है, कुछ खीझती और कुछ झल्लाती हुई)

मकानमालिक: (चीखकर) समझी कि नहीं? हम कह देते हैं हाँ? जनाब चित्तरकार हैं और आप मैडम, गायिका हैं ना?!..हँ! बाकी देखिए, एक बात कान खोलकर सुन लीजिए, आपलोग का करते हैं और का नहीं, हमको उससे कोई मतलब नहीं है!! हमको हमारा मकान का किराया पहिला तारीख को मिल जाना चाहिए, समझीं मैडम? (रौब से) हम एकदम साफ़ बात करते हैं- बस! पतिदेव आयें तो बता दीजियेगा उनको भी...चलते हैं| अऊर हाँ, एक बात नोट कर लीजिए, अगिला बार हम इहाँ आएँगे नहीं, आप लोग इहाँ से जाएंगे!! जय राम जी की!!

नलिनी: (खिसियानी हँसी हंसते हुए) जी! मैं समझ गयी. आपको शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा. (उसे जाते
हुए देखती है और कुछ गुस्से और अफसोस के साथ खुद से कहती है) उफ़!!! ये मकान-मालिक भी सिर पर
सवार हो जाता है| मगर क्या करूँ. कुछ भी सही नहीं हो रहा. (गुनगुनाने लगती है)
       न जाने क्यूँ/होता है ये ज़िंदगी के साथ
      अचानक ये मन/ किसी के जाने के बाद
      करे फिर उसकी याद/छोटी छोटी से बात
(गाने के स्वर गुनगुनाते हुए फेड आउट होते हैं. और तभी अभिनव कमरे में प्रवेश करता है)
अभिनव: नलिनी! नलिनी!! ये क्या, तुमने दरवाज़ा खुला छोड़ रखा है! क्या बात है, कोई आया था क्या?  
(दरवाज़े के बंद होने की आवाज़-खटक!)
नलिनी: (‘सब कुछ ठीक हो जाएगा’ वाला भाव लेकर थोड़ा गर्म जोशी से और हंस कर) और कौन आएगा! वही ‘यमराज’ आया था, किराया मांगने, लगता है यमलोक में भी मंदी छाई है!
अभिनव:  ओह! कल ही तो उससे बात की थी मैंने. हद्द करता है (गंभीर और परेशान होकर) अच्छा, तुम्हारे उस इश्तहार का क्या हुआ? कोई जवाब आया??
नलिनी: (सकपकाती सी) इश्श...इश्तहार? अरे हाँ हुआ ना! एक जगह से बुलावा आया था... और मैं तो हो भी आई वहाँ से|
अभिनव: कहाँ से?
नलिनी: हैं एक कर्नल जे. डब्ल्यू. एन. सिंह. (थोड़े जोश से) यहीं, पास में ही रहते हैं. उनकी बेटी को संगीत सिखाना है.
अभिनव: (थोड़ा गुम-सा होकर) क्या नाम बताया तुमने? कर्नल..
नलिनी: जे-डब्ल्यू-एन सिंह! और उनकी बेटी प्रभा | नीलिमा नाम है वैसे, पर घर में सब उसे प्रभा ही बुलाते हैं. अभी-अभी पन्द्रह की हुई है|... जानते हो, बड़ी ही अच्छी लड़की है| शालीन और सुशील...
अभिनव: (थोड़ी चिंता में) पर नलिनी! मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा कि कि मेरी आर्ट् की पढाई के लिए, तुम अपने म्यूजिक का शौक छोडकर, सौ दो सौ रुपयों की ट्यूशन के लिए भाग-दौड़ करो.. तुम भी तो आगे म्यूजिक जारी रखना चाहती थी ना? और अब मेरे लिए तुम..
अभिनव: (गर्मजोशी से) फिर वही बात, अभि! (पास आकार बैठती है) क्या मैं तुम्हारे लिये इतना भी नहीं कर सकती? पत्नी हूँ तुम्हारी! Your better half! और ये सब मैं तुम्हारे बेटरमेंट के लिए ही कर रही हूँ... एक बार पैसे आने लगें तो फिर सारी मुश्किलें खत्म हो जायेंगी... और जानते हो, कर्नल सा’ब मुझे तीन हज़ार देने को राजी हो गए हैं!
अभिनव: तीन हज़ार!!      
नलिनी: हाँ अभिनव हाँ!.. अब ज़्यादा सोचो मत. फिलहाल तुम शंकर पिल्लै की क्लासेज में अपने आर्ट को निखारने पर ध्यान दो... अच्छा जल्दी से हाथ-मुँह धो लो, मैं खाना लगाती हूँ!

(बैकग्राउंड में बजने वाला संगीत अचानक तेज हो जाता है और धीरे धीरे फेड आउट होता है)
अभिनव: नलिनी! (अचानक खुशी से) एक खुशखबरी दूं तुम्हें!! पता है, शंकर सर को मेरी पार्क-वाली पेंटिंग बहुत अच्छी लगी. उनके कहने पर राजेन ने उसे अपनी दूकान के लिए ले लिया है. कहता है वो पेंटिंग तुरत बिक जायेगी. उसके बिकने पर मुझे ज़रूर मिलेगा.. पैसा भी और मौक़ा भी!
नलिनी: (खुशी से) अरे वाह! ये तो बड़ी अच्छी बात है!! कितनी रोटियां दूं?
अभिनव: दो-तीन दे दो... और हाँ! कल सुबह-सुबह ही निकालना होगा मुझे| शंकर सर ने सनराइज़ की पेंटिंग बनाने को कहा है|
नलिनी: सनराइज़? हाउ रोमांटिक!! वैसे मुझे भी कर्नल सा’ब के बंगले पर जाना होगा, कल से ही. उनका घर जानते हो, कित्ता बडा है? बाप रे! और बंगले के आगे लॉन.. और (बीच ही में टोकता है)
अभिनव: ज़िंदगी नें ये कैसी करवट ली है, नलिनी! हमारे सपनों की नाव जैसे मझधार में ही अटक के रह गयी है.. पता नहीं हम उस पार कैसे जायेंगे?
नलिनी: (शान्ति से) अभि तुम भी ना...!! भूल गए.. ‘जो अपने हुनर को चाहता है, उसे ज़िंदगी में कोई रोक नहीं पाता!’
अभिनव: अरे! ये क्या!! बुरे वक़्त ने तुम्हें भी शेरो-शायरी सिखा दी?(दोनों हंसने लगते हैं) ये भी अच्छी बात है|

(संगीत तेज हो जाता है और आहिस्ता आहिस्ता बंद हो जाता है)

नलिनी: आ-ई-ये मेहर-बां..! बैठिये जाने जाँ! (गाते हुए स्वागत करती है अभिनव का)
अभिनव: इस गाने पर तो रुपये लुटाने का जी चाह रहा है!!
नलिनी: (बड़ी खुशी से) अरे-वाह! हज़ार रूपए?
अभिनव: हाँ! और सुनो, उस यमराज को भैसे के चारे के लिए पैसे दे आया हूँ!
नलिनी: मगर ये पैसे आये कहाँ से?? (मुस्कुराती हुई) ओह्हो!! वो पेंटिंग बिक गयी क्या?
अभिनव: ठीक समझी. और जानती हो खरीददार कौन था? जयपुर के राजघराने के एक राजा साहब.. घूमने आए हैं यहाँ.. बस रीझ गए पेंटिंग पर.
नलिनी: (विस्मय से) ‘जयपुर’ के राजघराने से? यकीन नहीं आ रहा!! हे भगवान, तेरा लाख लाख शुक्र है!
अभिनव: खैर, तुम बताओ, तुम्हारा दिन कैसा रहा?
नलिनी: ठीक ही था वैसे तो... लेकिन प्रभा सीख ही नहीं पाती है आसानी से.. और...और ऊपर से उसे सर्दी भी हो गयी है, ऐसे में ना तो वो गा ही पाती है और ना ही प्रैक्टिस कर पाती है|
अभिनव: कोई बात नहीं! अभी बीमार है.. सीख जायेगी धीरे-धीरे|
नलिनी: (एक छोटे से पौज़ के बाद) हे अभिनव!!! कहाँ खो गए तुम!!
अभिनव: हूँ....जानती हो, राजा सा’ब को एक और पेंटिंग चाहिए और वो भी फिर से वही सनराइज़ वाली| (खीज कर) क्या करूँ अब!!
नलिनी: करना क्या है! सुबह सुबह निकल जाना.
अभिनव: सुबह तो निकालना ही पडेगा... सूरज तो सुबह को ही निकलता है|

(सीन चेंज के लिए एक संगीत)

अभिनव: (विस्मय से) ओफ्फोह नलिनी! आज तो बड़ी देर कर दी तुमने? आज तो मैं तुमसे भी पहले (तभी उसकी नज़र नलिनी के हाथ पर बंधी पट्टी पर पडती है) अरे, ये क्या! ये हाथ पर पट्टी क्यों बांधी रखी है? दिखाओ? (हडबडा कर उठता है. कुर्सी के पीछे खिसकने की आवाज़)
नलिनी: (दर्द में है मगर दिखाना नहीं चाहती, हालाँकि छुपा भी नहीं पा रही)
       ओह! कुछ नहीं बस..ऐसे ही.. ठीक हो जाएगा..
अभिनव: उफ़!! आओ यहाँ बैठो! कोई दवाई लगाई है क्या? कैसे लगी ये चोट!
नलिनी: प्रभा के लिए पानी गर्म कर रही थी... उसे सर्दी लग गयी है ना और उस समय घर पर कोई भी नहीं था तो मैंने सोचा मैं ही गर्म कर देती हूँ.. बस गर्म पानी हाथ पर गिर पड़ा..
अभिनव: ओह्हो! नलिनी!! तुम भी ना...
नलिनी: अभिनव, मैं बिलकुल ठीक हूँ! प्रभा को बहुत अफसोस हो रहा था.. उसने तुरत नीचे से ड्राइवर को आवाज़ लगाई और वो ड्राइवर भी देखो ना... बैंडेज की जगह गाड़ी साफ़ करने वाले डस्टर की पट्टी बाँध दी उसने. (हंसते हुए) भला डस्टर की पट्टी बांधता है कोई..??
अभिनव: हाँ क्यों नहीं बांधता. बशर्ते कि वो तुमसे उतना ही प्यार करता हो, जितना मैं.
नलिनी: मैं समझी नहीं!!
अभिनव: (उसकी बात पर ध्यान दिए बिना) सच सच बताओ! तुम दो हफ़्तों से कर क्या रही हो..??
नलिनी: क्या कर रही हूँ? मतलब??
अभिनव: (इत्मिनान से) हाँ, क्या कर रही हो? प्रभा, कर्नल और म्यूजिक ट्यूशन???
नलिनी: अभिनव! मैं..मैं... अब नहीं छुपाऊँगी तुमसे!! दरअसल मेरे इश्तहार का कोई जवाब नहीं आया और मैं ये भी नहीं चाहती थी कि तुम अपनी क्लासेज छोडो... बस मैंने पास की लौंड्री में कपडे आयरन करने की नौकरी कर ली...
अभिनव: और कर्नल जे.डब्ल्यू.एन सिंह और प्रभा ?
नलिनी: (हंसती हुई) कर्नल जे.डब्ल्यू.एन सिंह को नहीं जानते? फिल्म ‘छोटी सी बात’ में अशोक कुमार के किरदार का नाम था.. तुम्हारे सामने कहानी बनाते वक़्त यही नाम सबसे पहले आया और प्रभा, उसी फिल्म की हिरोइन, विद्या सिन्हा का नाम.. (हंसने लगती है)
अभिनव: ( भाव शून्य) और ये हाथ कैसे जला?
नलिनी: (अनमने ढंग से) आयरन करते वक़्त गलती से... (प्यार जताते हुए) तुम नाराज़ तो नहीं हो ना मुझपर? मैं करती ही क्या? बताओ...ये कहानी ना गढी होती तो क्या तुम जयपुर के महाराजा को अपनी पेंटिंग बेच पाते?
अभिनव: वो जयपुर का था ही नहीं|
नलिनी: जहाँ का भी था!.. (अचानक चौंककर) एक मिनट, एक मिनट!! तुम्हें क्यूँ लगा कि मैं प्रभा को म्यूजिक नहीं सिखा रही?
अभिनव: वो प्यार भरी पट्टी!! बैंडेज की जगह डस्टर की. उसी ने समझाया मुझे!! वरना मैं कहाँ समझा था? और शायद समझ भी ना पाता, अगर खुद मैंने ये डस्टर की पट्टी लौंड्री से ऊपर उस लड़की के लिए नहीं भेजी होती जिसने आयरन से अपना हाथ जला लिया था.  
नलिनी: (अति विस्मय से) क्या! तुमने!! और तुम वहाँ कर क्या रहे थे??
अभिनव: मैं पिछले दो हफ़्तों से उसी लौंड्री में कपडे धो रहा हूँ|
(दोनों खूब जोर जोर से हंसने लगते हैं)
अभिनव: (हंस कर) जयपुर के महाराजा, कर्नल जूलियस विल्फ्रेड नागेन्द्रनाथ सिंह और प्रभा... कितनी अजीब कलाकृतियां हैं|
नलिनी: (हंसते हुए) पर ये कला, ना तो संगीत है और ना ही चित्रकारी..
(दोनों मिलकर हँसते हैं)
अभिनव: सच है ना, जब कोई अपने हुनर को चाहता है...
नलिनी: ( हंस कर) अ-अ! यूं कहो कि जब कोई किसी को शिद्दत से चाहता है...


(दोनों की हँसी एक मधुर संगीत में फेड आउट हो जाती है)

शनिवार, 10 नवंबर 2012

चोखेर बाली


गजब का रिस्ता था दुन्नो घर के बीच में. एक तरफ हमरा घर अऊर दोसरा तरफ दिलजान माय का घर. दिलजान माय, माने हमरी दादी की ननद की ननद. पिताजी उनको दिलजान माय और उनके पति को फूफा कहते थे. अजीब बुझाता है सुनकर कि फूआ काहे नहीं कहते थे. बाद में मालूम हुआ कि हमरी दादी की ऊ ‘दिलजान’ थीं, इसीलिये माय की दिलजान, दिलजान माय कहलाती थीं. कभी दादाजी (पिताजी के फूफा, जो ओकील थे) को कचहरी जाने का जल्दी होता था अऊर उनके इहाँ खाना नहीं बना रहता था, त हमरे एहाँ से पूरा बना बनाया भात-दाल उठाकर ले जाती थी. कोई संकोच नहीं. इसको कहते थे दिलजान होने का रिस्ता.

दुनो दादी में रिस्तेदारी से बढकर दोस्ती का रिस्ता था अऊर दुनों एक-दोसरा को दिलजान कहकर बोलाती थीं. ई नाम के बाद न कोई नाम, न कोई रिस्ता, न कोई बड़ा-छोटा का भेद. बस जिसको दिल अऊर जान से अपना लिया ऊ दिलजान हो गया.

एही बात पर आज नारो फुआ का याद आ गया. नारो फुआ का नाम था नर्मदा, मगर पुराना जमाना में लोग प्यार से पुकारने के लिये असली नाम को छोटा कर देते थे. नर्मदा को नारो, राजेश्वर को राजो, सच्चिदानन्द को साचो और ‘देवदास’ के पार्वती को पारो. हमरी नारो फुआ, पिताजी की फुफेरी बहिन थीं. मगर पिताजी की सबसे छोटकी फुआ माने उनकी मौसी उन्हीं के उमर की थीं. दुनो के बीच ‘सखि’ का रिस्ता था. ई रिस्ता के बीच कोई भेद नहीं था कि कऊन मौसी हैं अऊर कऊन बहिन-बेटी. जब भी पुकारती थीं तो सखि कहकर. आस्चर्ज का बात ई था कि कभी गलतियो से ऊ दूनो के मुँह से एक दोसरा के लिये सखि छोड़कर कोनो दोसरा नाम हम नहीं सुने. अइसहीं ऊ टाइम का लोग के बीच पान, फूल, सखी अऊर दिलजान का रिस्ता बनता जाता था.

हमरी दादी अऊर हमरे घर भर की दिलजान माय हमरे पैदा होने के पहिले स्वर्ग सिधार गईं. ऊ लोग का बस खिस्सा सुनते रहे. धीरे-धीरे ई सब बात एतना कॉमन हो गया कि कभी ध्यान भी नहीं जाता था. बचपन बीत गया अऊर जब हम कॉलेज पहुँचे त हमरा एगो दोस्त बना – एस. पी. द्विवेदी. हमरा नाम एस. पी. वर्मा. बस तब्बे से हम दुनो एक दोसरा को 'एस्पी' कहने लगे. अंजाने में हम-दुनो के बीच सखि-दिलजान वाला रिस्ता बन गया. आझो दोस्ती बरकरार है अऊर एस्पी छोड़कर कभी कोनो अऊर नाम से नहीं बोलाये हम लोग एक-दोसरा को. 
अब बाते निकला है त एगो अऊर मजेदार बात बताइये देते हैं. एक रोज हम एस्पी को फोन किये. उधर से आवाज़ आया हैलो.
हम बोले, कौन एस्पी?
जवाब मिला, नहीं सर! हम डी.एस.पी. बोल रहे हैं!
हम तुरते फोन काट दिये. असल में फोन उसके चचा उठाये थे, जो डी.एस.पी. थे अऊर उनका आवाज़ एकदम हमरे दोस्त एस्पी जैसा था. ऊ सोचे होंगे कि जऊन आदमी एतना रोब से एस्पी बोला रहा है, त उसके आगे उनके जैसा डी.एस.पी. का का बिसात. बात में ई बात पर हम दुनो दोस्त खूब हँसे.

ऐसहिं रिस्ता बना हुआ है चैतन्य आलोक जी के साथ भी. सायदे कभी हम लोग एक-दोसरा को नाम से, सलिल जी - चैतन्य जी कहकर बतियाये होंगे. हम दुनो एक दोसरा को सर-जी कहते हैं. एहाँ तक कि हमरी सिरीमती जी भी उनका फोन आने पर बोलती हैं, सर जी का फोन आया है! एकदम फॉर्मल लगने वाला सब्द सर जी भी एतना मीठा रिस्ता को बयान कर सकता है, ई कोई सोचियो नहीं सकता है.

कमाल का रिस्ता है ई दोस्ती... कभी प्रेम बन जाता है, कभी भक्ति बनकर सामने आता है. एतना मीठा रिस्ता कि जहाँ एक अऊर एक मिलकर दू नहीं, एक बनता है. जिसके होने में न सुख का पता चलता है, न दुःख का. सबकुछ भुला जाता है अऊर एगो परम सांति का अनुभव होता है.

मगर कमाल का बात है कि एही सम्बन्ध को गुरुदेव रबिन्द्र नाथ ठाकुर सखी, दिलजान, फूल अऊर पान के रूप में नहीं आँख में पड़कर, गड़ने वाला बालू के रूप में देखाए अऊर नाम दिए – ‘चोखेर बाली!’