गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

अजन्मा का जन्म-महोत्सव


रोम में एक सम्राट बीमार पड़ा हुआ था. वह इतना बीमार था कि चिकित्सकों ने अंतत: इंकार कर दिया कि वह नहीं बच सकेगा. सम्राट और उसके प्रियजन बहुत चिंतित हो आए और अब एक-एक घड़ी उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा ही करनी थी और तभी रोम में यह ख़बर आई कि एक फकीर आया है जो मुर्दों को भी जिला सकता है. सम्राट की आँखों में आशा वापस लौट आई. उसने अपने वज़ीरों को भेजा उस फ़कीर को लाने को.

वह फ़कीर आया और फ़कीर ने आकर उस सम्राट को कहा कि कौन कहता है कि तुम मर जाओगे... तुम्हें तो कोई बड़ी बीमारी भी नहीं है. तुम उठ कर बैठ जाओ, तुम ठीक हो सकोगे. एक छोटा सा ईलाज कर लो.

सम्राट जो महीनों से लेटा हुआ था, उठा नहीं था, उठकर बैठ गया. उसने कहा – कौन सा ईलाज, जल्दी बताओ, उसके पहले कि समाप्त न हो जाऊँ. क्योंकि चिकित्सक कहते हैं कि मेरा बचना मुश्किल है. वह फकीर बोला कि क्या तुम्हारी इस राजधानी में एकाध ऐसा आदमी नहीं मिल सकेगा जो सुखी भी हो और समृद्ध भी. अगर मिल सके तो उसके कपड़े ले आओ और उसके कपड़े तुम पहन लो. तुम बच जाओगे. तुम्हारी मौत पास नहीं.

वज़ीर बोले – यह तो बहुत आसान सी बात है. इतनी बड़ी राजधानी है, इतने सुखी, इतने समृद्ध लोग हैं.. महलों से आकाश छू रहे हैं महल. आपको दिखाई नहीं पड़ता. यह वस्त्र हम अभी ले आते हैं. फ़कीर हँसने लगा. उसने कहा – अगर तुम वस्त्र ले आओ तो सम्राट बच जाएगा.

वे वज़ीर भागे. वह उस फकीर की हँसी को कोई भी न समझ सका. वे गए नगर के सबसे बड़े धनपति के पास और उन्होंने जाकर कहा कि सम्राट मरण शय्या पर है और किसी फ़कीर ने कहा है कि वह बच जाएगा... किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र चाहिये. आप अपने वस्त्र दे दें. नगरसेठ की आँखों में आँसू आ गये. उसने कहा – मैं अपने वस्त्र ही नहीं अपने प्राण भी दे सकता हूँ, अगर सम्राट बचते हों. लेकिन मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे. मैं समृद्ध तो हूँ लेकिन सुखी मैं नहीं हूँ. सुख की खोज में मैंने समृद्धि इकट्ठी कर ली, लेकिन सुख से अब तक नहीं मिलन हो सका. और अब तो मेरी आशा भी टूटती जाती है. क्योंकि जितनी समृद्धि सम्भव थी, मेरे पास आ गयी है और अब तक सुख के कोई दर्शन नहीं हुए. मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे. मैं दुखी हूँ... मैं क्षमा चाहता हूँ.

वज़ीर तो बहुत हैरान हुये. उन्हें फ़कीर की हँसी याद आई. लेकिन और लोगों के पास जाकर पूछ लेना उचित था. वे नगर के और धनपतियों के पास गये. और साँझ होने लगी. और जिसके पास गये उसी ने कहा कि समृद्धि तो बहुत है, लेकिन सुख से हमारी कोई पहचान नहीं. वस्त्र हमारे... काम नहीं आ सकेंगे. फिर तो वे बहुत घबराए कि सम्राट को क्या मुँह दिखाएँगे. सम्राट खुश हो गया और यह ईलाज हमने समझा था कि सस्ता है. यह तो बहुत मँहगा मालूम पड़ता है... बहुत कठिन.

तभी उनके पीछे दौड़ता हुआ सम्राट का बूढा नौकर हँसने लगा और उसने कहा कि जब फकीर हँसा था तभी मैं समझ गया था. और जब तुम सम्राट के सबसे बड़े वज़ीर भी अपने वस्त्र देने का ख़्याल तुम्हारे मन में न उठा और दूसरों के वस्त्र माँगने चले, तभी मैं समझ गया था कि यह ईलाज मुश्किल है.

फिर जब सूरज ढल गया तो वे सम्राट के महल के पास पहुँचे. महल के पीछे ही गाँव की नदी बहती थी. अन्धेरे में नदी के उस पार से किसी की बाँसुरी की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी. वह संगीत बड़ा मधुर था. वह संगीत बड़ी शांति की ख़बर लिये हुये था. उस संगीत की लहरों के साथ आनन्द की भी कोई धुन थी. उसके संगीत में ही ऐसी कुछ बात थी कि उनके प्राण भी जो निराशा और उदासी से भरे थे वे भी पुलक उठे. वे भी नाचने लगे. वे उस आदमी के पास पहुँचे और उन्होंने कहा कि मित्र हम बहुत संकट में हैं, हमें बचाओ. सम्राट मरण शय्या पर पड़ा है. हम तुमसे यह पूछने आए हैं कि तुम्हें जीवन में आनन्द मिला है? वह आदमी कहने लगा – आनन्द मैंने पा लिया है. कहो मैं क्या कर सकता हूँ. वे खुशी से भर गये और उन्होंने कहा कि तुम्हारे वस्त्रों की ज़रूरत है. वह आदमी हँसने लगा. उसने कहा - मैं अपने प्राण दे दूँ अगर सम्राट को बचाना हो. लेकिन वस्त्र मेरे पास नहीं है. मैं नंगा बैठा हुआ हूँ. अन्धेरे में आपको दिखाई नहीं पड़ रहा.

उस रात वह सम्राट मर गया. क्योंकि समृद्ध लोग मिले जिनका सुख से कोई परिचय न था. एक सुखी आदमी मिला जिसके वस्त्र भी न थे. अधूरे आदमी मिले, एक भी पूरा आदमी न मिला, जिसके पास वस्त्र भी हो और जिसके पास आत्मा भी हो... ऐसा कोई आदमी न मिला. इसलिये सम्राट मर गया.

पता नहीं यह कहानी कहाँ तक सच है. लेकिन आज तो पूरी मनुष्यता मरणशय्या पर पड़ी है और आज भी यही सवाल है कि क्या हम ऐसा मनुष्य पैदा कर सकेंगे जो समृद्ध भी हो और शांत भी? जिसके पास वस्त्र भी हो और आत्मा भी? जिसके पास सम्पदा हो बाहर की और भीतर की भी? जिसके पास शरीर के सुख भी हों और आत्मा के आनंद भी?

(प्रिय ओशो के जन्म-दिवस पर उन्हीं के एक प्रवचन से उद्दृत )

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है

20 नवम्बर 2014 सुबह पाँच बजे:
सिरहाने रखे हुए हमरे मोबाइल का रिंग बजा त हम घबरा गए. हमरे सभी जान-पहचान अऊर रिस्तेदार लोग में से कोई भी हमको रात में भले एक बजे तक फोन कर ले, मगर सुबह-सुबह कोई फोन नहीं करता है. अऊर ई त भोरे-भोरे फोन बज रहा था. बन्द आँख से फोन उठाये अऊर टटोलकर चस्मा खोजे. नाम फ्लैस कर रहा था चैतन्य.

घबराहट में फ़ोन उठाये तो उधर से हमसे जादा घबराहट भरा आवाज सुनाई दिया, “सर जी! नेट पर फ्लाइट चेक करो आप! अभी निकलना है घर से फोन आया है!”
”फोन रखो. मैं चेक करके फोन करता हूँ.”

एक रोज़ पहले ही ऊ घर से लौटे थे अऊर अभी त कल का थकान भी नहीं उतरा था.
हम लैपटॉप लेकर बइठ गये अऊर फ्लाइट चेक करने लगे.
“सर जी! एक फ्लाइट नौ बजे है और दूसरी ग्यारह चालीस पर.”
”नौ बजे वाली नहीं मिलेगी! आप ग्यारह चालीस वाली बुक कर दो.”
”ठीक है. आपको मेसेज आएगा, फिर भी मैं टिकट मेल करता हूँ!”

इसके अलावा न हम दुनो में कोई बात हुआ न हमलोग कुछ पूछे एक दूसरा से. डर अऊर अनिस्ट का आसंका अऊर आभास होने पर भी कुछ बात अपना कान से सुनने अऊर आँख से देखने का हिम्मत नहीं होता है.

साल 2006-07
चैतन्य जी के साथ हमरा दोस्ती का सुरुआती दौर था. कोनो काम से उनके घर गये त देखे एगो बुजुर्ग बेक्ति दीवान पर बैठे हुये हैं. पैर छुए त ऊ हाथ उठाकर आसीर्बाद दिये. बहुत कम बोलना चालना. चैतन्य जी के पिता जी के साथ ऊ हमरा पहिला मुलाकात था. हम औपचारिकता में कुछ पूछते रहे त ऊ माथा हिलाकर जवाब देते रहे. दोबारा चण्डीगढ़ में उनसे मिले, मगर ऊ भी बहुत थोड़ा देर के लिये.

साल 2008-09
चैतन्य जी नया नया हैण्डीकैम खरीदे थे अऊर सोनी टीवी के सी.आई.डी. के तर्ज पर घर के सबलोग को एकट्ठा करके एगो सिनेमा बना दिये. ऊ सिनेमा में उनका बचिया, सिरीमती जी, छोटा भाई, भाई के पत्नी के साथ-साथ उनके माँ अऊर बाबूजी भी जमकर ऐक्टिंग किये थे. सूटिंग जाड़ा के टाइम में हुआ था इसलिये सम्बाद बोलते बोलते उनकी अम्मा का ई डायलॉग सुनकर हँसते हँसते हाल बेहाल हो गया था कि कोई दरवाज़ा तो बन्द कर दो भाई! खैर, घर के सबलोग का बराबर का सहजोग अऊर बड़ा से बच्चा तक का काम देखकर मजा आ गया.

साल 2010-14
पिताजी के बारे में हमलोग के बीच बहुत सा बात होता था. जैसे उनका अस्थानीय अखबार में आलेख लिखना, आसपास के लोग का कानूनी मदद करना, सरकार को उसका काम याद दिलाना अऊर चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रचार करना. घर पर खुलकर राजनैतिक बहस करना अऊर दोसरा पक्ष का बात सुनना. कोनो तरह का नाजायज काम एकदम बर्दास्त नहीं करना. बच्चा लोग लाख कहे कि जाने दीजिये चलता है, लेकिन उनका कहाँ चलता है. जबतक नाक में दम करके काम नहीं करवा लेंगे तब तक चैन कहाँ. लिखा पढी में त परधान मंत्री तक को अप्लीकेसन लिखने में हिचक नहीं!

आज के जमाना में भी ट्रांजिस्टर पर समाचार सुनने में उनको जो आनन्द मिलता था ऊ टीवी में नहीं. एही नहीं आकासबानी रामपुर द्वारा आयोजित परिचर्चा में त ऊ नियमित रूप से आमंत्रित किये जाते थे. अफसोस का बात है कि उनका परिचर्चा का कोनो रेकॉर्डिंग नहीं है.

अगस्त 2014
अचानक उनका तबियत खराब हुआ... खून का रिपोर्ट में गड़बड़ी निकला... आगे जाँच हुआ त पता चला गुर्दा का कैंसर है ऐडभांस इस्टेज का... ऑपरेसन करके गुर्दा हटा दिया गया... हस्पताल से डिस्चार्ज हुए... कमजोर मगर ठीकठाक.

नवम्बर 2014
दोबारा तबियत बिगड़ा.. पता चला कि फेफड़ा में पानी भर गया है... फिर से भर्ती... साढे सात सौ ग्राम पानी निकला... दस दिन तक पाइप लगा रहा... 17 तारीख को फिर से डिस्चार्ज हुये अऊर घर पहुँच गये... 19 नवम्बर को चैतन्य के सिर पर हाथ फेरकर आसीर्बाद देते हुये बोले कि तुम जाओ, केतना दिन नौकरी छोड़कर बैठोगे. चैतन्य चले गये..

तारीख 20 नवम्बर 2014
साम को चैतन्य का मेसेज आया... पिताजी नहीं रहे! अचानक लोड-सेडिंग होने से जइसे अन्धारा हो जाता है मन में चल रहा भोरे से जो उम्मीद का दिया टिमटिमा रहा था, ऊ बुझ गया.

कल चैतन्य से बात हुआ त पता चला कि नाता रिस्तेदार के अलावा पता नहीं केतना अनजान लोग उनको सर्धांजलि देने आया, जिसमें हिन्दू मुसलमान, अमीर गरीब सब तरह के लोग थे. कल त हद हो गया जब मुम्बई से सीधा एगो बेक्ति उनको सर्धांजलि देने आये अऊर एक घण्टा रुककर लौट गये... ई हो बता गये उनकी बहिन उज्जैन से कल-परसों आने वाली है.

बचपन में हमरे दादा जी गुलाब का कलम लगाते थे. जिसमें बहुत सुन्दर गुलाब का पौधा खिलता था. लेकिन एक बार उसमें कोनो पौधा नहीं निकला, उलटे कलम सूख गया. बाद में पड़ताल करने पर पता चला कि हमरा भाई ऊ कलम को जमीन में रोज घुमा देता था.

हम दुनो दोस्त – हम अऊर चैतन्य एही बतिया रहे थे आपस में कि ई नौकरी हमलोग को अपना जमीन से केतना दूर जाकर कलम के तरह रोप दिया है अऊर हर तीन साल में कोई आता है अऊर उसको घुमाकर दोसरा जगह रोप देता है. जब हमलोग वापस अपना मिट्टी में लौटकर जाएँगे त ऊ मट्टी भी सायद हमलोग को नहीं पहचानेगा, लोगबाग का त बाते अलग है.

पिताजी जाते-जाते अपना नेत्रदान कर गये. उनके आँख से कोई जरूरतमन्द नया दुनिया देख पाएगा. आसमान के तरफ देखते हुये सायद कभी उसको एगो तारा देखाई दे जिसको ऊ धन्यवाद देते हुये कहेगा – कौन कहता है कि आप नहीं हैं. आसमान के तारों से लेकर धरती की मिट्टी तक और आसमान के देवताओं से लेकर धरती के न जाने कितने जरूरतमन्दों के दिल में आप जीवित हैं!

पिता जी के इस्मृति को हमरा सादर नमन!!

बुधवार, 19 नवंबर 2014

साँप और सीढ़ी

जिन्नगी का रस्ता अगर सीधा-सादा एक्के लाइन में चलने जइसा होता, त जिन्नगी आसान होता चाहे नहीं होता, बाकी नीरस जरूर हो जाता. एही से भगवान भी हर अदमी के लाइफ़ का स्क्रिप्ट एकदम अलगे लिखता है. हमलोग समझते हैं कि हम अपना मेहनत से अपना कहानी लिख लेते हैं, चाहे ई मान लेते हैं कि हर इंसान का कहानी, उसका हाथ का लकीर में लिखा हुआ है, जिसको ऊ चाहे त अपना कोसिस से बदल सकता है... नहीं त होइहैं ओहि जे राम रचि राखा...! अपना सफलता के पीछे अपना मेहनत अऊर दोस्त लोग का साथ अऊर असफलता के पीछे किस्मत चाहे भगवान को दोस देकर छुटकारा पा लिये!

बिचित्र रचना है परमात्मा का जिसको समझने का दावा करने वाला लोग त बहुत मिल जाता है, लेकिन समझने वाला सायद कोई नहीं. जिसको समझ आ गया ऊ आनन्द से एतना ना सराबोर रहता है कि उसको बखान करने का सब्द मिलना मोस्किल हो जाता है. असल में एतना कॉनट्रास्ट पसरा हुआ है उसका हर रचना में कि सिवा आस्चर्ज करने अऊर आनन्द उठाने के हमलोग कुछ करियो नहीं सकते हैं. दिन के साथ रात, खुसी के पीछे-पीछे गम, आँसू के परदा में मुस्कान अऊर उजाला का दुस्मन अन्धेरा.

ओइसहिं हर अदमी के जीवन में बहुत बार ऐसनो मौका आता है जब ऊ अपने आप को दोराहा पर खड़ा पाता है. फैसला तुरत लेना होता है जिसको पलटना मोस्किल ही नहीं, नामुमकिन होता है. अब ऊ रास्ता कहाँ लेकर जाएगा, ई त पहुँचने के बादे बुझाता है. अऊर तब्बे कोई कहता है कि उसका फैसला गलत था कि सही. बहुत कम लोग गुलज़ार साहब के तरह आनन्द लेते हैं, ई कहते हुए कि
ये जीना है , अंगूर का दाना,
कुछ खट्टा है, कुछ मीठा है
जितना पाया मीठा था
जो हाथ न आया खट्टा है!
हमरे साथ अइसा पसोपेस का मौका न जाने केतना बार आया. कभी दिल का सुने, कभी दिमाग से सोचे, कभी दोस्त से सलाह लिये, कभी डर गये... अऊर एगो रास्ता पर आगे बढ गये. मगर इस मामला में हमारा रेकॉर्ड 100% रहा है. कभी भी सही जगह पर नहीं पहुँचे. गलतियो से हमरा चुना हुआ रास्ता कभी सही नहीं हुआ.

एक बार गर्मी में अपने घर से दूर साइकिल चलाकर कोनो परीक्षा देने गये थे. जब परीक्षा देकर निकले त आराम से साइकिल पर बढ चले. गर्मी में साइकिल का सवारी नरक  का भट्ठी से कम नहीं था. जब करीब बीस पच्चीस मिनट साइकिल चल गया त हमको लगा कि अभी तक सचिवालय नहीं देखाई दे रहा है, रेलवे इस्टेसन भी नहीं आया. सोचे कि हो सकता है पीछे के जगह पर आगे वाला रास्ता धरा गया है. मगर फिर देखे कि सब नया नया दिरिस देखाई दे रहा है. मन घबराया, त मने मन कोई बेकूफ नहीं समझे इसलिये एगो अदमी से पूछे – ए चचा! खगौल केतना दूर हई! अऊर चचा का जवाब सुनकर गोड़ के नीचे से पैडिल खिसक गया. चचा का जवाब था, “बस दस मिनट में पहुँच जएबा बबुआ!” हम साइकिल मोड़े अऊर उलटा रास्ता से लौटे. का हाल हुआ होगा ई कहने सुनने का बात नहीं है.

अपने ऑफिस के जीवन में भी भगवान का ई नाटक हमरा पीछा नहीं छोड़ा कभी. हर बार हमरे हाथ में दू गो पोस्टिंग मिला. कम से कम तीन बार हमको दू गो पोस्टिंग में से एगो चुनने का मौका मिला. लोग सोचते होंगे कि बहुत किस्मत वाला है अइसा मौका किसको मिलता है.. ऊ भी तीन बार! मगर हमरा निर्नय जो भी रहा, का मालूम काहे हमको बाद में पछताना पड़ा कि हम जो रस्ता चुने ऊ भूल हो गया. सायद इसका कारन ई भी हो सकता है कि अदमी का सोभाव है कि उसको हमेसा दोसरा साइड का घास जादा हरा बुझाता है. बहुत सा लोग अइसा भी मिला जो बोला कि हमलोग एक साथ ई दोराहा से अलग हुए थे, आज तुम कहाँ रह गए और हम कहाँ पहुँच गये. मगर अपना फैसला के लिये कोनो अऊर को काहे दोस देना. अऊर ऊपरवाले के स्क्रिप्ट में दखलन्दाजी करने का हमरा औकात कहाँ!

आज जब पीछे पलट कर देखते हैं त एगो अऊर दोराहा इयाद आता है. आम तौर पर कभी ऊ मोड़ का जिकिर हम नहीं करते हैं. मगर ऊ कहते हैं कि अंतिम समय में याददास्त साफ हो जाता है. ऊ दोराहा पर खड़ा होकर हम अपने दिल का बात अनसुना करके एगो रस्ता पर आगे बढ गये थे. एतना आगे कि जब पीछे मुडकर देखे त बुझाया कि हम अकेले हैं.

एक बार कोई हमरा हाथ देखकर बोला था कि आपके हाथ की रेखाएँ इतनी कटी हुई हैं कि लगता ही नहीं कुछ भी सीधा हुआ होगा आपकी ज़िन्दगी में!
हम भी हँसकर बोले – “भाई! हमारी हथेली साँप-सीढी के बोर्ड से कम थोड़े ही न है! ध्यान से देखिये तो कुछ सीढ़ियाँ और बहुत से साँप नज़र आएँगे. इतना डँसा है इन साँपों ने कि अब तो इनके काटने से गुदगुदी सी होती है.”

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

एकलव्य

टेक्नोलॉजी का जमाना में तरक्की एतना फास्ट होने लगा है कि कभी-कभी टेक्नोलॉजिये पीछे रह जाता है. अब देखिये ना एगो अदमी रोड पर भागा जा रहा था कि उसका एगो दोस्त भेंटा गया. बदहवास भागते हुए देखकर पूछा, “कहाँ भागे जा रहे हो यार?”
“कुछ मत पूछो, बाद में बात करूँगा!”
”सब ठीक तो है ना?”
”सब ठीक है. मगर बहुत जल्दी में हूँ, फिर मिलकर बात करूँगा!”
”मैं भी साथ चलूँ. शायद ज़रूरत पड़ जाए मेरी?”
”ये ठीक रहेगा. मेरे पास बिल्कुल टाइम नहीं है. दरसल मैंने नया टीवी ख़रीदा है!”
”अच्छा! तो इसी खुशी में उड़े जा रहे हो!”
”खुशी में नहीं यार, डर से भागा जा रहा हूँ!”
”डर कैसा? चोरी की है क्या?”
”नगद देकर ख़रीदा है! डर तो इस बात का है कि घर पहुँचते-पहुँचते कहीं मॉडल पुराना न हो जाए!”

त बात साफ है कि तरक्की के लिये टेक्नोलॉजी अऊर टेक्नोलॉजी के लिये इस्पीड जरूरी है. अब मोबाइल फोन ले लीजिये. एक से एक अंगूठा छाप के हाथ में लेटेस्ट इस्मार्ट-फोन देखाई दे जाता है. एतने नहीं, उसके मुँह से एण्ड्रॉयड, जेली बीन, क्वाड-प्रो, मेगापिक्सेल, रैम, मेमोरी, ऐप्प अऊर डाउनलोड जइसा सब्द सुनकर आपको बिस्वासे नहीं होगा कि मोबाइल के कैस-मेमो पर ऊ महासय दस्खत के जगह अंगूठा लगाकर आ रहे हैं.

असल में मोबाइल त पढ़ा-लिखा आदमी को अंगूठा छाप बना दिया है. मेसेज करना है त अंगूठा, पढना है त अंगूठा, फेसबुक पर कमेण्ट करना है त अंगूठा अऊर ब्लॉग पढना है त पेज ऊपर-नीचे करने के लिये अंगूठा. माने सारा पढ़ाई खतम करने के बाद भी अंगूठा छाप.

मामला खाली मोबाइले तक रहता त कोनो बात नहीं था. ऑफिसे में देख लीजिये... पहिले हाजिरी बनाने के लिये हाजिरी रजिस्टर पर साइन करना पड़ता था. अब अंगूठा लगाना पड़ता है. मजाक नहीं कर रहे हैं... इसमें मजाक का कोनो बाते नहीं है, न कोनो बुझौवल बुझा रहे हैं हम. एकदम बाइ गॉड का कसम खाकर सच कह रहे हैं. अभी कुछ महीना पहिले ऑफिस में भी एगो नया टेक्नोलॉजी आया है हमारे... एगो मसीन. अब जबतक ऊ मसीन के ऊपर अपना अंगूठा छाप नहीं दीजियेगा, तबतक आपको ऑफिस में कोनो काम करने का परमिसन नहीं मिलेगा. बताइये त भला, गजब अन्धेरगर्दी है. जऊन आदमी का दस्तखत पर भारत देस के कोनो-कोना में, चाहे दुनिया के बहुत सा जगह में आसानी से पइसा का लेन-देन हो जाता है, ऊ अदमी को उसी के ऑफिस में अंगूठा छाप बनकर अपना पहचान बताना पड़ रहा है!! हे धरती माई, बस आप फट जाइये अऊर हम समा जाएँ. हमरा बाप-माय लोग का सोचेगा कि बेटा को एतना पढ़ा-लिखाकर साहेब बनाए अऊर ऊ अंगूठा छाप बना हुआ है.

सी.आई.डी. के डॉ. साळुंके के जइसा ऑफिस पहुँचकर मसीन में अंगूठा लगाते हैं अऊर इंतजार करते हैं. मसीन का जवाब आता है कि फिंगर-प्रिंट मेल नहीं खा रहा है. हई देखिये, अब दोसरा अंगुली का छाप दीजिये, पहचान होने के बादे काम सुरू हो पाता है.

हमरे एगो संगी-साथी को ई सब से बहुत परेसानी हो गया. असल में उनका आदत है तनी देरी से सोकर उठने का. अब देरी से उठते हैं, त ऑफिसो देरिये से पहुँचते हैं. अब कम्प्यूटर के जमाना में एक-एक मिनट का हिसाब दर्ज होता रहता है. ई हालत में डेली देरी से ऑफिस जाना, माने सीरियस बात. ऊ का करते हैं कि अपना पासवर्ड एगो इस्टाफ को बताकर रखे हुये हैं. ऊ इस्टाफ बेचारा उनके बदला में उनका हाजिरी लगा दिया करता है.

अब अंगूठा छाप मसीन हो जाने के बाद, बिना अंगूठा पहचाने, हाजिरी लगबे नहीं करेगा. ऊ भाई जी एकदम असमान माथा पर उठाए हुए थे अऊर बेवस्था को जमकर गरिया रहे थे. एहाँ तक कि देस का तकनीकी बिकास का ऐसी-तैसी करने में लगे हुये थे. कुल मिलाकर भाई जी का बिरोध एही बात पर था कि उनका भोरे का नींद हराम हो रहा है. ई जानते हुए भी कि इसका कोनो इलाज नहीं है, ऊ हमसे पूछ बैठे, “यार! अब तुम ही बताओ कि इससे कैसे निपटा जाए!”
हम बोले, “हिन्दू हो?”
”अब ये क्या सवाल हो गया!”
“शास्त्रों में विश्वास है ना?”
”हाँ भाई हाँ!!”
”तो उस बेचारे ने जिसने आजतक तुम्हारे पासवर्ड से तुम्हारी सुबह की हाज़िरी लगाई है उसे अपना गुरू मानो और ऐड्वांस में गुरुदक्षिणा के तौर पर अपना अंगूठा काटकर दे दो. रोज़ सुबह वो तुम्हारा अंगूठा लगाकर हाज़िरी बनाता रहेगा!”

कूँ कूँ कूँ के आवाज के साथ फोन डिस-कनेक्ट हो चुका था.

(एकलव्य का अंगूठा गुरु द्रोण ने गुरुदक्षिणा में माँग लिया था, लेकिन वाण चलाने के लिये धनुष पर वाण को रखकर तर्जनी और मध्यमा की सहायता से प्रत्यंचा पर शर-सन्धान किया जाता है. इसमें अंगूठे का कोई योगदान नहीं होता)

रविवार, 27 जुलाई 2014

नो स्मोकिंग


यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेsर्जुन।
कर्मेन्द्रियै कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ (गीता 3/7)
परंतु हे अर्जुन! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्तिरहित होकर कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।


आदत, ब्यसन, वासना या इच्छा के साथ एगो बात है कि अच्छा लगता नहीं है अऊर बुरा छूटता नहीं। उनको भी ऐसने एगो आदत सायद इस्कूल के टाइम से लगा था... सिगरेट पीने का। ऐसहिं देखा-देखी सुरू होने वाला मजा के लिये मजाक में किया गया प्रैक्टिस धीरे-धीरे आदत बनता गया। ई आदत आदमी का दोसरा बेक्तित्व बन जाता है अऊर एतना सहज होता है कि उसको पते नहीं चलता है कि उसके अन्दर एगो दोसरा आदमी भी जनम ले चुका है। उनके मामू एक रोज उनसे पूछे कि बेटा आजकल सिगरेट पीने लगे हो का, त ऊ एकदम कॉनफिडेंस के साथ बोले, “नहीं तो!” तब मामू उनके कान पर खोंसा हुआ आधा जला सिगरेट देखाकर पूछे कि ई का है बबुआ! अऊर उनको काटो त खून नहीं।

धुँआधार धूम्रपान करने वाला परिवार था उनका। उनके पिताजी बीड़ी पीते थे, उनके भाई थे एगो जो पहिले लुका छिपाकर अऊर बाद में सामने सिगरेट पीने लगे थे, उनके ममेरा भाई जो उनसे छौ महीना बड़ा थे (ओही मामू के सुपुत्र) उनको भी सिगरेट का लत था। अब जब अइसा माहौल हो त हर फिकिर को उड़ाने का एक्के तरीका होता था – धुँआ में। बस जिन्नगी का साथ निभाते चलिये अऊर हर फिकिर को धुँआ में उड़ाते चलिये।

मगर आदमी थे ऊ गजब के इस्मार्ट। जब सादी बियाह हो गया, नौकरी-चाकरी लग गया, बाल-बच्चा हो गया, तब ई सिगरेट का आदत भी साथे-साथ बढता गया अऊर उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी भी जवान होता गया। जबसे हमको इयाद आता है, हम उनको सिगरेट बनाकर पीते हुये ही देखे। बनाकर माने – टोबैको-पाउच से तम्बाकू निकालना अऊर सिगरेट का कागज में लपेटकर बनाना।

उनका पसन्दीदा ब्राण्ड होता था कैप्स्टन – नेवी कट अऊर बाद में विल्स। पटना में ई वाला तम्बाकू खाली दू दुकान में मिलता था – जे. जी. कार एण्ड संस अऊर डी. लाल एण्ड संस। जब ऊ तम्बाकू पाउच से निकालकर, सिगरेट-पेपर में लपेटते थे अऊर जीभ पर ऊ कागज में लगा हुआ गोंद को गीला करके सिगरेट बनाते थे, त हमरे भी मुँह से निकल जाता था कि क्या इस्टाइल है! सिगरेट चीज केतनो बुरा हो, मगर इस्टाइल के मामले में प्राण से लेकर  असोक कुमार तक अऊर रहमान से सतरुघन सिन्हा तक एही सिगरेट चार चाँद लगा देता था।

ओइसहिं उनका भी अन्दाज था, हाथ से बनाकर सिगरेट पीने का। एक रोज अचानक उनको महसूस हुआ कि एक आँख से उनको देखने में दिक्कत हो रहा है। जब भी कोनो चीज को देखते थे, त ऊ चीज टुकड़ा-टुकड़ा में देखाई देता था। डॉक्टर से सलाह लिया गया त पता चला कि ब्लड-प्रेसर बढने के कारन आँख में हेमरेज हो गया है। लम्बा ईलाज चला अऊर सब नॉर्मल हो गया, सिगरेट पीना भी।

दवाई चलता रहा अऊर तबियत बीच-बीच में ऊपर नीचे होता रहता था। एक रोज ऐसहिं जब डॉक्टर डी. के. स्रीवास्तव को देखाने गये, त ऊ दवाई के साथ एक्के बात बोले, “वर्मा जी! आप सिगरेट छोड़ दीजिये। ये आपके लिये सुसाइड जैसा है!” कमाल ई था कि ऊ डॉक्टर साहब खुद धुँआधार सिगरेट पीते थे।

डॉक्टर के किलीनिक से निकलते हुये ऊ सिगरेट बनाए अऊर हाथ में बिना सिगरेट जलाए पैदल चलने लगे, कुछ सोचते हुए। रास्ता में एगो कचरा का डिब्बा देखाई दिया। ऊ हाथ का बिना जलाया हुआ सिगरेट कचरा में फेंक दिये अऊर कुछ सोचते हुये तम्बाकू का पूरा नया पाउच भी कचरा में डाल दिये। ऊ दिन अऊर उनका अंतिम दिन, सिगरेट को कभी हाथ नहीं लगाए। असल में उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी एतना ताकतवर हो गया था कि ऊ आदमी जो सिगरेट छोड़ना चाहता था (जिसका उमर जाहिर है बहुत कम रहा होगा) उसको डराकर भगा देता था।

ओशो कहते हैं कि हम उम्र भर, जन्म से लेकर मृत्यु तक, इन्द्रियों से पूछते चले जाते हैं कि हम क्या करें। इन्द्रियाँ बताए चली जाती हैं और हम करते चले जाते हैं। इसलिये हम शरीर से ज़्यादा कोई अनुभव नहीं कर पाते हैं। आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है और मनुष्य की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है।

जिनके एक पल में घटित होने वाला संकल्प सक्ति का हम आपको खिस्सा अभी सुनाए ऊ थे हमरे पिताजी। ऊ हमेसा कहते थे हमसे कि अगर कभी सिगरेट पीना सुरू करो त हमको जरूर बता देना, ताकि ऊ बात कोई बाहर का लोग हमको बताए त हमको अफसोस नहीं हो कि तुमसे पता नहीं चला। हम इस्मार्ट जरूर हैं, लेकिन एतना इस्मार्ट नहीं कि जाकर अपने पिताजी से कहें कि डैड, हम सिगरेट पीने लगे हैं! बस, कभी पीबे नहीं किए! आज भी ऊ तम्बाकू का खुसबू हमारे मन में बसा हुआ है।

आज उनका पुण्यतिथि है। हम सब आपको बहुत मिस करते हैं!!

रविवार, 6 जुलाई 2014

देख लो, आज हमको जी भर के


उसको अगर नबजुबती नहीं, त जुबती तो कहिए सकते हैं. नाम था सकीला. बातचीत करने का लहजा हैदराबादी था. अपना आदत है कि सामने वाला इंसान जऊन जुबान में बात कर रहा हो, कोसिस करते हैं कि उसके जुबान में बतिया लें उससे. अपने धन्धे में सम्बन्ध बहुत माने रखता है. बातचीत से सम्बन्ध बनता है अऊर सम्बन्ध से भरोसा. भरोसा हर धन्धे का बुनियाद है, हमरे धन्धे का उसूल.
सकीला बाजी के साथ बात करते हुए कब उनको बुझाने लगा कि हम बिस्वास करने जोग आदमी हैं, हमको नहीं पता चला. देखते-देखते हम भी भाई जान हो गये. हर महीने नियम से सकीला बाजी हमरे ऑफिस में आतीं अऊर हमसे हिसाब-किताब करवातीं – “अम्मी को पाँच हज़ार, नसरीन को तीन हज़ार... नहीं नहीं भाई जान नसरीन को आठ कर दो, बुआ को पाँच देना है.. पिछले महीने नसरीन उनो से लेकर अम्मा को दी... ज़ाफर को दो हज़ार. और मेरे अकाउण्ट में पन्दरह हज़ार! कित्ते हो गये भाई जान!”
“तैंतीस हज़ार!”
”ठीक है भाई जान! मेरे पन्दरह सिकोटी बैंक में जमा कर दो अऊर बाक़ी के नसरीन के खाते में तारा बैंक में.”
हमको मालूम था कि तारा बैंक का मतलब बैंक ऑफ इण्डिया (उसका लोगो एक बड़ा सा तारा है) अऊर सिकोटी बैंक था सिण्डिकेट बैंक जिसका तलफ्फुज़ सकीला बाजी का ओही था. दू चार महीना के बाद हम भी तारा बैंक अऊर सिकोटी बैंक बोलने लगे थे.

सकीला बाजी का काम एहीं खतम नहीं होता था. ऊ हमेसा बहुत फुर्सत में आती थीं. पइसा भेजने का काम हो जाने के बाद खत लिखकर बताना होता था कि नसरीन के खाता में जो पैसा जमा हुआ है उसमें से अम्मी, ज़ाफर अऊर बुआ को केतना देना है. उसके अलावा खत में खैरियत, नसरीन के बच्चे को पढने का नसीहत, ज़ाफर को मन लगाकर काम करने का सीख अऊर हर दो लाइन के बाद बहुत खुश है यहाँ सारजाह में. लगभग हर महीने खत में एही सब लिखा जाता था. हमको ई सब इसलिये मालूम है कि ऊ खत लिखने का काम हमारा था.

सकीला बाजी लगभग अनपढ थी. हमपर भरोसा था इसलिये घर का बहुत सा बात ऊ हमसे लिखवाती थी. असल में सुरू सुरू में ऊ हमको मुसलमान समझती थी. इसलिये जब हम पहिला बार खत लिखने से मना कर दिए काहे कि हमको उर्दू लिखना नहीं आता था, त ऊ बोली हिन्दी में लिख दो भाई जान. मजा तब आया जब हम ऊ खत पढकर सुनाए त उनका रिऐक्सन था – “कैसी बाताँ करते भाई जान. पूरा ख़त उर्दू में लिखा है, लेकिन आपकी उर्दू (देवनागरी) देखने में उर्दू जैसी नहीं लगती.”

एक रोज कहीं कोई गलती हो जाने के कारन सकीला बाजी को बोलाने का जरूरत पड़ा. काहे कि ऊ महीना में बस एक बार आती थीं, इसलिये दोबारा उनका आने का इंतजार में महीना भर निकल जाता. हमको जब हमारा स्टाफ बताया त हम फॉर्म पर दिया हुआ मोबाइल नम्बर पर फोन लगाए. उधर से ठेठ अरबी में कोई मर्द का आवाज सुनाई दिया. हम सकीला भर बोल पाए. उधरवाले को का बुझाया मालूम नहीं, फोन कट गया.

दोसरा दिन सकीला बाजी घबराई हुई आईं.
“क्या मसला हो गया भाई जान!”
हम बताए, कागज पर दस्तखत लिये अऊर काम खतम हो गया. जाते हुए ऊ बोली – “भाई जान! आइन्दा फोन मत किया कीजिये मोबाइल पर!”
हमको समझ में आ गया बन्द परदा के पीछे का हक़ीक़त. हम सिर हिलाकर बोले कि नहीं बाजी, ऐसा आइन्दा नहीं होगा!
सब कुछ पहिले जैसा चलने लगा. एक रोज सकीला बाजी एक बुज़ुर्गवार के साथ हमरे ऑफिस में आईं. ऊ बुजुर्ग सोफा पर बैठ गए अऊर हम सकीला बाजी के काम में लग गए. किसको केतना पैसा भेजना है अऊर उसके साथ खत में पैसा के बँटवारे का तफसील.
ई सब हो जाने के बाद हम धीरे से बोले – “मुलुक से अब्बू तशरीफ लाए हैं, बाजी?”
हमारा इसारा ऊ बुजुर्ग के तरफ था जो अरबी लिबास (दिशदशा) पहने सोफ़ा पर बइठे हुए थे.
“नहीं भाई जान! मुलुक से तो बस ख़त आते! ये तो हमारे मियाँ हैं!”

(कल बॉबी जासूस फ़िल्म में सुप्रिया पाठक को देखकर मुझे फ़िल्म ‘बाज़ार’ याद आ गई, जिसका सच मुझे इस घटना को देखकर पता चला... हैदराबाद से लड़कियों को ले जाकर खाड़ी देशों में बेच/ब्याह दिया जाना बूढे अरबी लोगों से... आँखों देखा सच!)

शनिवार, 10 मई 2014

कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी


“कविता मेरे लिये रिक्त घट भर देने वाला जल है, ज़मीन फोड़कर निकला हुआ अंकुर है, अन्धेरे कमरे में जलता हुआ दिया है, बेरोज़गार के लिये रोज़गार है या कि बेघर भटकते मन का ऐसा एकमात्र आश्रय है जहाँ बैठकर कुछ राहत मिल जाती है. कविता मेरी अंतरंग मित्र है, भीड़ में भी मेरे अकेलेपन की संगिनी. कविता के कन्धों का सहारा लेकर मैंने अब तक का ऊबड़ खाबड़ रास्ता सरलता से तय कर लिया. मैं कविता की ऋणी हूँ क्योंकि मेरी कुछ अनुभूतियाँ कविता की ममतामय गोद में जाकर रचना की संज्ञा पा लेती हैं.”
और ऐसी ही कुछ रचनाओं का संग्रह है – “कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी.” जैसा कि  शीर्षक से विदित है यह पंक्ति किसी नज़्म की पंक्ति सी प्रतीत होती है या फिर किसी गीत सी. तो यह है श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ के कुछ चुने हुए गीतों का संग्रह. उनकी अब तक प्रकाशित चौथी पुस्तक, जिसमें समाहित हैं उनके लगभग सत्तर गीत. इन गीतों में कुछ ग़ज़लें हैं और कुछ दोहे भी हैं. चुँकि दोनों विधाओं की रचानाएँ गायी जाती रही हैं, इसलिये उन्हें गीतों के मध्य गीत मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.


(बड़ी बहु सुलक्षणा कुलश्रेष्ठ) 

कविता को लेकर कवयित्री के ऊपर दिये गये विचार उन्होंने आत्मकथ्य में स्पष्ट किए है और जिस रचनाकार के लिये कविता का अर्थ इतना विस्तार लिये हो, उसके लिये तो सम्पूर्ण प्रकृति ही एक कविता है. और स्वयम को इस प्रकृति का एक अंश स्वीकारते हुये अपनी रचनाधर्मिता निभाना उनके लिये उस परमपिता की स्तुति से कम नहीं. गिरिजा जी का परिचय हमारे लिये उनके ब्लॉग “ये मेरा जहाँ” से है. किंतु उनका यह परिचय एक अत्यंत संकोची और अपनी रचनाओं को सुदामा के चावल की तरह छिपाने वाले व्यक्तित्व सा ही रहा है. उनके इस संग्रह में जितने भी गीत हैं, उन्हें पढने के बाद कोई उनके इस वक्तव्य से सहमत नहीं हो सकता कि जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी मैं ख़ुद को पहली कक्षा में पाती हूँ.

इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रत्येक गीत की संरचना भिन्न है अर्थात यदि उन गीतों की स्वरलिपि लिखी जाए तो वह अनिवार्य रूप से हर गीत के लिये अलग होगी. यह बात इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि कुछ ऐसे गीतकार भी देखे गए हैं जिनके लगभग समस्त गीतों की रचना एक ही धुन को आधार बनाकर की गई होती है. गिरिजा जी ने हर गीतों में स्थायी और अंतरे का विभाजन इतने सहज ढंग से किया है कि यदि उन्हें गाया जाए तो दोनों भागों के मध्य विभेद करने में असुविधा की कोई सम्भावना नहीं रह जाती. आधुनिक गीतों में इस तरह की व्यवस्था गीत/ काव्य संरचना में नहीं होती है (कविता और गीत दोनों को समान विधा मान लिये जाने के कारण), अत: इस आधार पर सारे गीतों को हम क्लासिकल कह सकते हैं. गीतों में लयात्मकता है और सभी गेय हैं.

गीतों के विषय इतनी विविधता लिये हैं कि पाठक एकरसता का शिकार नहीं होता जैसे – प्रकृति, ऋतुएँ, नववर्ष, पर्व त्यौहार आदि. साथ ही कुछ रचनाएँ नितांत व्यक्तिगत हैं जैसे अपने पुत्र के लिये, दूसरे पुत्र के जन्म दिवस पर, भाई के लिये बहन के उद्गार आदि. किंतु अपने पुत्र को केन्द्र में रखकर लिखा हुआ गीत भी जब आप पढते हैं तो आपको उसमें अपने पुत्र की झलक दिखाई देती है. मन्नू के जन्मदिन पर वो क्या कहती हैं देखिये

हर पल से तू हाथ मिलाना/खुलकर गले लगाना
रूठे हुये समय को भी/ देकर आवाज़ बुलाना
लक्ष्य नए कुछ तय करना/ संकल्पों का सन्धान
और भीड़ में खो मत देना/ अपनी तू पहचान.

इनकी कविताओं में व्यर्थ की घोषणाएँ, नारे और भाषणों का स्थान नहीं होता. इनके सन्देश इतने मुखर हैं कि उसके लिये किसी शोर का वातावरण दरकार नहीं.

अंग्रेज़ी की आदत क्यूँ हो/ इण्डिया माने भारत क्यूँ हो,
हृदय न समझे मतलब जिनका/ ऐसी जटिल इबारत क्यूँ हो
सरल भाव हों, सरल छन्द हों/ अपनी लय अपना स्वर हो
ऐसा नव-सम्वत्सर हो!

किसी भी रचनाकार के शब्दकोष का अनुमान उसकी दस पन्द्रह रचनाओं को पढकर लग जाता है. लेकिन गिरिजा जी की सत्तर रचनाओं को पढने के बाद भी बहुत कम शब्द पुनरावृत्त होते हुये दिखाई दिये. यह इनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है. शब्दों का भण्डार, उचित शब्दों का चयन, शब्दों द्वारा भावों की अभिव्यक्ति, इतनी सुगठित है कि किसी एक शब्द को उठाकर आप कोई दूसरा शब्द बिठाना चाहें तो पूरी कविता काँच के बर्तन की तरह चकनाचूर हो जाती है.

कलुष विषाद बहाते/ भारवहन में हैं ये कच्चे
कोई कितना भी झूठा हो/ आँसू होते सच्चे
सूने-सूने आँगन में/ ये भावों का अमंत्रण हैं
आँसू मन का दर्पण हैं!

दोहे जितने भी हैं सब अपने क्लासिकल रूप में दो पंक्तियों में अपनी बात सीधा कह जाते हैं. यहाँ एक सुन्दर प्रयोग का उल्लेख करना चाहूँगा:

हर वन-उपवन बन गया, ब्यूटी-पार्लर आज,
सबकी सज्जा कर रही, सृष्टि हुई शहनाज़!

जब से इन्हें पढना आरम्भ किया है तब से मेरे अंतर्मन में यह प्रश्न हमेशा सिर उठाता था कि श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ की कविताओं पर महादेवी वर्मा जी का प्रभाव दिखता है. इस संग्रह में एक गीत उन्होंने महादेवी वर्मा जी को समर्पित किया है, जो परोक्ष रूप से मेरे सन्देह की पुष्टि करता है.

इतनी ख़ूबियों के साथ ही कुछ कमियाँ भी रही हैं, जिनकी चर्चा के बिना यह प्रतिक्रिया संतुलित नहीं कही जा सकती.

गीतों के साथ प्रणय का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है. जहाँ हम सब जानते हैं कि हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं, वहीं हम सब यह मानते हैं कि प्रेम में हर व्यक्ति कवि बन जाता है. गिरिजा जी के गीतों में दर्द का एक सुर , व्यवस्था से नाराज़गी, पर्यावरण नष्ट करने वालों के प्रति आक्रोश तो दिखता है, किंतु प्रणय-गीत की अनुपस्थिति एक प्रश्न करती है उनसे, भले ही उनकी क्षमताओं पर प्रश्न चिह्न न लगाये. कालिमा, गरल, रुद्ध, हुँकार, रक्तरंजित, पीड़ा, धूमिल, विगलित, करुणा – इन शब्दों का चयन उनके अन्दर के अवसाद को प्रकट करता है. दूसरी ओर जहाँ उनके दोहे चकित कर देते हैं, वहीं ग़ज़लों में मूलभूत भूल दिखाई दे रही है. उन्होंने स्वयम स्वीकार किया है कि गज़ल की विधा से वे पूर्णत: परिचित नहीं हैं.

गुलज़ार साहब की एक पुस्तक है – पन्द्रह पाँच पचहत्तर. प्रथम दृष्टि में यह कोई दिनाँक प्रतीत होता है. परंतु उस संग्रह में पन्द्रह विभागों के अंतर्गत उनकी चुनी हुई पाँच-पाँच नज़्में हैं. गिरिजा जी को भी चाहिये था कि वे रचनाएँ जो इस संग्रह में बिखरी हुई हैं, एक मुख्य विषय (प्रकृति, रिश्ते, ऋतुएँ, सरोकार आदि) के अंतर्गत विभक्त कर संकलित की जानी चाहिए थीं.

यह संग्रह श्री अरुण चन्द्र राय के ज्योतिपर्व प्रकाशन, इन्दिरापुरम द्वारा प्रकाशित हुआ है. पुस्तक सजिल्द आवरण के साथ है और कवर बहुत ही आकर्षक है. छपाई की गुणवत्ता किसी भी स्थापित प्रकाशक से कमतर नहीं है. पुस्तक को देखते ही हाथ में उठाने की तबियत होती है और हाथ में लेते ही पढने की जिज्ञासा जागृत होती है.

इस संग्रह के गीतों को पढते हुये मुझे जो अनुभव हुआ, उसे इस गीत के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है: जैसे सूरज की गर्मी से तपते हुये तन को मिल जाए तरुवर की छाया!