रविवार, 27 जुलाई 2014

नो स्मोकिंग


यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेsर्जुन।
कर्मेन्द्रियै कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ (गीता 3/7)
परंतु हे अर्जुन! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्तिरहित होकर कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।


आदत, ब्यसन, वासना या इच्छा के साथ एगो बात है कि अच्छा लगता नहीं है अऊर बुरा छूटता नहीं। उनको भी ऐसने एगो आदत सायद इस्कूल के टाइम से लगा था... सिगरेट पीने का। ऐसहिं देखा-देखी सुरू होने वाला मजा के लिये मजाक में किया गया प्रैक्टिस धीरे-धीरे आदत बनता गया। ई आदत आदमी का दोसरा बेक्तित्व बन जाता है अऊर एतना सहज होता है कि उसको पते नहीं चलता है कि उसके अन्दर एगो दोसरा आदमी भी जनम ले चुका है। उनके मामू एक रोज उनसे पूछे कि बेटा आजकल सिगरेट पीने लगे हो का, त ऊ एकदम कॉनफिडेंस के साथ बोले, “नहीं तो!” तब मामू उनके कान पर खोंसा हुआ आधा जला सिगरेट देखाकर पूछे कि ई का है बबुआ! अऊर उनको काटो त खून नहीं।

धुँआधार धूम्रपान करने वाला परिवार था उनका। उनके पिताजी बीड़ी पीते थे, उनके भाई थे एगो जो पहिले लुका छिपाकर अऊर बाद में सामने सिगरेट पीने लगे थे, उनके ममेरा भाई जो उनसे छौ महीना बड़ा थे (ओही मामू के सुपुत्र) उनको भी सिगरेट का लत था। अब जब अइसा माहौल हो त हर फिकिर को उड़ाने का एक्के तरीका होता था – धुँआ में। बस जिन्नगी का साथ निभाते चलिये अऊर हर फिकिर को धुँआ में उड़ाते चलिये।

मगर आदमी थे ऊ गजब के इस्मार्ट। जब सादी बियाह हो गया, नौकरी-चाकरी लग गया, बाल-बच्चा हो गया, तब ई सिगरेट का आदत भी साथे-साथ बढता गया अऊर उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी भी जवान होता गया। जबसे हमको इयाद आता है, हम उनको सिगरेट बनाकर पीते हुये ही देखे। बनाकर माने – टोबैको-पाउच से तम्बाकू निकालना अऊर सिगरेट का कागज में लपेटकर बनाना।

उनका पसन्दीदा ब्राण्ड होता था कैप्स्टन – नेवी कट अऊर बाद में विल्स। पटना में ई वाला तम्बाकू खाली दू दुकान में मिलता था – जे. जी. कार एण्ड संस अऊर डी. लाल एण्ड संस। जब ऊ तम्बाकू पाउच से निकालकर, सिगरेट-पेपर में लपेटते थे अऊर जीभ पर ऊ कागज में लगा हुआ गोंद को गीला करके सिगरेट बनाते थे, त हमरे भी मुँह से निकल जाता था कि क्या इस्टाइल है! सिगरेट चीज केतनो बुरा हो, मगर इस्टाइल के मामले में प्राण से लेकर  असोक कुमार तक अऊर रहमान से सतरुघन सिन्हा तक एही सिगरेट चार चाँद लगा देता था।

ओइसहिं उनका भी अन्दाज था, हाथ से बनाकर सिगरेट पीने का। एक रोज अचानक उनको महसूस हुआ कि एक आँख से उनको देखने में दिक्कत हो रहा है। जब भी कोनो चीज को देखते थे, त ऊ चीज टुकड़ा-टुकड़ा में देखाई देता था। डॉक्टर से सलाह लिया गया त पता चला कि ब्लड-प्रेसर बढने के कारन आँख में हेमरेज हो गया है। लम्बा ईलाज चला अऊर सब नॉर्मल हो गया, सिगरेट पीना भी।

दवाई चलता रहा अऊर तबियत बीच-बीच में ऊपर नीचे होता रहता था। एक रोज ऐसहिं जब डॉक्टर डी. के. स्रीवास्तव को देखाने गये, त ऊ दवाई के साथ एक्के बात बोले, “वर्मा जी! आप सिगरेट छोड़ दीजिये। ये आपके लिये सुसाइड जैसा है!” कमाल ई था कि ऊ डॉक्टर साहब खुद धुँआधार सिगरेट पीते थे।

डॉक्टर के किलीनिक से निकलते हुये ऊ सिगरेट बनाए अऊर हाथ में बिना सिगरेट जलाए पैदल चलने लगे, कुछ सोचते हुए। रास्ता में एगो कचरा का डिब्बा देखाई दिया। ऊ हाथ का बिना जलाया हुआ सिगरेट कचरा में फेंक दिये अऊर कुछ सोचते हुये तम्बाकू का पूरा नया पाउच भी कचरा में डाल दिये। ऊ दिन अऊर उनका अंतिम दिन, सिगरेट को कभी हाथ नहीं लगाए। असल में उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी एतना ताकतवर हो गया था कि ऊ आदमी जो सिगरेट छोड़ना चाहता था (जिसका उमर जाहिर है बहुत कम रहा होगा) उसको डराकर भगा देता था।

ओशो कहते हैं कि हम उम्र भर, जन्म से लेकर मृत्यु तक, इन्द्रियों से पूछते चले जाते हैं कि हम क्या करें। इन्द्रियाँ बताए चली जाती हैं और हम करते चले जाते हैं। इसलिये हम शरीर से ज़्यादा कोई अनुभव नहीं कर पाते हैं। आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है और मनुष्य की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है।

जिनके एक पल में घटित होने वाला संकल्प सक्ति का हम आपको खिस्सा अभी सुनाए ऊ थे हमरे पिताजी। ऊ हमेसा कहते थे हमसे कि अगर कभी सिगरेट पीना सुरू करो त हमको जरूर बता देना, ताकि ऊ बात कोई बाहर का लोग हमको बताए त हमको अफसोस नहीं हो कि तुमसे पता नहीं चला। हम इस्मार्ट जरूर हैं, लेकिन एतना इस्मार्ट नहीं कि जाकर अपने पिताजी से कहें कि डैड, हम सिगरेट पीने लगे हैं! बस, कभी पीबे नहीं किए! आज भी ऊ तम्बाकू का खुसबू हमारे मन में बसा हुआ है।

आज उनका पुण्यतिथि है। हम सब आपको बहुत मिस करते हैं!!

रविवार, 6 जुलाई 2014

देख लो, आज हमको जी भर के


उसको अगर नबजुबती नहीं, त जुबती तो कहिए सकते हैं. नाम था सकीला. बातचीत करने का लहजा हैदराबादी था. अपना आदत है कि सामने वाला इंसान जऊन जुबान में बात कर रहा हो, कोसिस करते हैं कि उसके जुबान में बतिया लें उससे. अपने धन्धे में सम्बन्ध बहुत माने रखता है. बातचीत से सम्बन्ध बनता है अऊर सम्बन्ध से भरोसा. भरोसा हर धन्धे का बुनियाद है, हमरे धन्धे का उसूल.
सकीला बाजी के साथ बात करते हुए कब उनको बुझाने लगा कि हम बिस्वास करने जोग आदमी हैं, हमको नहीं पता चला. देखते-देखते हम भी भाई जान हो गये. हर महीने नियम से सकीला बाजी हमरे ऑफिस में आतीं अऊर हमसे हिसाब-किताब करवातीं – “अम्मी को पाँच हज़ार, नसरीन को तीन हज़ार... नहीं नहीं भाई जान नसरीन को आठ कर दो, बुआ को पाँच देना है.. पिछले महीने नसरीन उनो से लेकर अम्मा को दी... ज़ाफर को दो हज़ार. और मेरे अकाउण्ट में पन्दरह हज़ार! कित्ते हो गये भाई जान!”
“तैंतीस हज़ार!”
”ठीक है भाई जान! मेरे पन्दरह सिकोटी बैंक में जमा कर दो अऊर बाक़ी के नसरीन के खाते में तारा बैंक में.”
हमको मालूम था कि तारा बैंक का मतलब बैंक ऑफ इण्डिया (उसका लोगो एक बड़ा सा तारा है) अऊर सिकोटी बैंक था सिण्डिकेट बैंक जिसका तलफ्फुज़ सकीला बाजी का ओही था. दू चार महीना के बाद हम भी तारा बैंक अऊर सिकोटी बैंक बोलने लगे थे.

सकीला बाजी का काम एहीं खतम नहीं होता था. ऊ हमेसा बहुत फुर्सत में आती थीं. पइसा भेजने का काम हो जाने के बाद खत लिखकर बताना होता था कि नसरीन के खाता में जो पैसा जमा हुआ है उसमें से अम्मी, ज़ाफर अऊर बुआ को केतना देना है. उसके अलावा खत में खैरियत, नसरीन के बच्चे को पढने का नसीहत, ज़ाफर को मन लगाकर काम करने का सीख अऊर हर दो लाइन के बाद बहुत खुश है यहाँ सारजाह में. लगभग हर महीने खत में एही सब लिखा जाता था. हमको ई सब इसलिये मालूम है कि ऊ खत लिखने का काम हमारा था.

सकीला बाजी लगभग अनपढ थी. हमपर भरोसा था इसलिये घर का बहुत सा बात ऊ हमसे लिखवाती थी. असल में सुरू सुरू में ऊ हमको मुसलमान समझती थी. इसलिये जब हम पहिला बार खत लिखने से मना कर दिए काहे कि हमको उर्दू लिखना नहीं आता था, त ऊ बोली हिन्दी में लिख दो भाई जान. मजा तब आया जब हम ऊ खत पढकर सुनाए त उनका रिऐक्सन था – “कैसी बाताँ करते भाई जान. पूरा ख़त उर्दू में लिखा है, लेकिन आपकी उर्दू (देवनागरी) देखने में उर्दू जैसी नहीं लगती.”

एक रोज कहीं कोई गलती हो जाने के कारन सकीला बाजी को बोलाने का जरूरत पड़ा. काहे कि ऊ महीना में बस एक बार आती थीं, इसलिये दोबारा उनका आने का इंतजार में महीना भर निकल जाता. हमको जब हमारा स्टाफ बताया त हम फॉर्म पर दिया हुआ मोबाइल नम्बर पर फोन लगाए. उधर से ठेठ अरबी में कोई मर्द का आवाज सुनाई दिया. हम सकीला भर बोल पाए. उधरवाले को का बुझाया मालूम नहीं, फोन कट गया.

दोसरा दिन सकीला बाजी घबराई हुई आईं.
“क्या मसला हो गया भाई जान!”
हम बताए, कागज पर दस्तखत लिये अऊर काम खतम हो गया. जाते हुए ऊ बोली – “भाई जान! आइन्दा फोन मत किया कीजिये मोबाइल पर!”
हमको समझ में आ गया बन्द परदा के पीछे का हक़ीक़त. हम सिर हिलाकर बोले कि नहीं बाजी, ऐसा आइन्दा नहीं होगा!
सब कुछ पहिले जैसा चलने लगा. एक रोज सकीला बाजी एक बुज़ुर्गवार के साथ हमरे ऑफिस में आईं. ऊ बुजुर्ग सोफा पर बैठ गए अऊर हम सकीला बाजी के काम में लग गए. किसको केतना पैसा भेजना है अऊर उसके साथ खत में पैसा के बँटवारे का तफसील.
ई सब हो जाने के बाद हम धीरे से बोले – “मुलुक से अब्बू तशरीफ लाए हैं, बाजी?”
हमारा इसारा ऊ बुजुर्ग के तरफ था जो अरबी लिबास (दिशदशा) पहने सोफ़ा पर बइठे हुए थे.
“नहीं भाई जान! मुलुक से तो बस ख़त आते! ये तो हमारे मियाँ हैं!”

(कल बॉबी जासूस फ़िल्म में सुप्रिया पाठक को देखकर मुझे फ़िल्म ‘बाज़ार’ याद आ गई, जिसका सच मुझे इस घटना को देखकर पता चला... हैदराबाद से लड़कियों को ले जाकर खाड़ी देशों में बेच/ब्याह दिया जाना बूढे अरबी लोगों से... आँखों देखा सच!)