शनिवार, 24 दिसंबर 2016

एक शीतल बयार - सुधांशु फ़िरदौस की कविताएँ

पिछले कुछ समय से सोचा कि लिखने से अवकाश लेकर कुछ पढना चाहिये. और इस विचार के साथ ही जो पहली रचनामाला मेरे सामने आई वो एक युवा कवि की है. इन्हें बहुत समय से पढता रहा हूँ और सहज ही अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता रहा. किंतु इन प्रतिक्रियाओं से परे, यह दुबला-पतला, किंतु गहन और गम्भीर कविताओं का सृजन करने वाला कवि धीरे-धीरे मेरे हृदय में स्थान बनाता चला गया. भोजपुरी के लोककवि भिखारी ठाकुर के शब्दों में कहूँ तो,

तीस बरिस के भईल उमिरिया, तब लागल जिव तरसे
कहीं से गीत, कबित्त कहीं से, लागल अपने बरसे!


इस कवि की जितनी भी रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं, उन्हें पढ़कर यही लगता है कि कविता एक टीस बनकर इस रचनाकार के मन में उभरी है और ऐसे में कहाँ से गीत और कहाँ से कविताएँ बरसने लगीं यह शायद उस कवि को भी नहीं पता होगा. उस युवा कवि का नाम है सुधांशु फ़िरदौस.” अपने ब्लॉग समालोचन पर उनकी कविताएँ प्रस्तुत करते हुए श्री अरुण देव उनका परिचय कुछ इस प्रकार देते हैं:

सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं में ताज़गी है. इधर की पीढ़ी में भाषा, शिल्प और संवेदना को लेकर साफ फ़र्क नज़र आता है. धैर्य और सजगता के साथ  सुधांशु कविता के पास जाते हैं. बोध और शिल्प में संयम, संतुलन और सफाई  साफ बताती है कि उनकी कितनी तैयारी है. ये क्लासिकल मिजाज़ की कविताएँ हैं, पर तासीर इनकी अपने समय के ताप से गर्म हैं.

यहाँ उनकी कुल आठ कविताएँ पाठकों के समक्ष हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है - तीन शीर्षक के अंतर्गत.

मुल्क है या मक़तल – यहाँ दो कविताएँ राष्ट्र के प्रबंधन से एक प्रश्न करती हैंजबकि प्रश्नकर्त्ता को उसका उत्तर ज्ञात है और यही छटपटाहट है उसकी. यह प्रश्न हर अवाम का है अपने मुल्क के हुक्काम से.

ये आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिनसे बने हुए दायरे को हम मुल्क कहते हैं 
जहाँ आज़ादी के लिये रूहें तडपती
कैदखाने नहीं तो और क्या हैं?
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क्या नफासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!

और फिर 
हुकूमत का कोई भी अदना सा फैसला 
मामूली सा फरमान 
काफी है आपको ताउम्र करने को हलकान

आम तौर पर व्यवस्था से पीड़ित जनता का दर्द व्यक्त करते हुये लोग कटाक्ष या उपालम्भ का सहारा लेते हैंकिंतु सुधांशु जी ने अपनी कविताओं में एक छिपी हुई करुणा का सहारा लिया है. यही नहींयह कविता किसी व्यवस्थादल या सरकार विशेष की बात नहीं कहतीयह एक आदर्श समाज की बात कहने की इच्छा और न कह पाने की विवशता को दर्शाती है.

इसके बाद शरदोपाख्यान के अंतर्गत पहली चार कविताएँ शीतकाल की धूपदिवससंध्या और शरद पूर्णिमा की रात्रि के शब्द-चित्र ही नहींकिसी बच्चे की बनाई ऐसी पेंटिंग की तरह है जो वह हाथ में कूची पकड़ते ही बनाना शुरू करता है – यानि एक ग्रामीण कैनवस पर शरद ऋतु का एक अनोखा चित्रांकनजहाँ रंगों में एक नयापन हैदृश्यों में एक परम्परागत आकर्षण है और इनसे उत्पन्न होने वाला प्रभाव मुग्ध कर देता है साथ ही प्रवासियों को इस बात का एहसास दिलाता है कि उन्होंने क्या खोया है.

खिली है शरद की स्वर्ण सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
माँ कहा करती थी चाम ही नहीं 
हड्डियों में भी लग जाती है धूप 
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इस लापरवाह धूप के भरोसे ही 
ओल, अदरख, आलू, आंवला, मूली के 
रंग बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आँगन

जिसे लग जाए ये धूप 
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठाता रहता है टंकार 
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग भरती
नवरात्र के हुमाद से सुवासित करती रहती है ये धूप

और इन कविताओं के अंत में एक कविता महानगर को समर्पित. जहाँ शरद पिछली कविताओं की तरह शरीर को नहीं ठिठुराता, बल्कि वातानुकूल कक्ष में सिर्फ़ कैलेण्डर के बदलते एक महीने का एहसास भर करवा रहा होता है.


लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में 
या पड़े हैं टेलीवीज़न देखते बिस्तर पर निढाल 
जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूँद 

और अंत में एक लम्बी कविता कालिदास का अपूर्ण कथा गीत. इसे पढना और एक-एक शब्द को अपने अंतस में उतारते जाना, एक ऐसा अनुभव है मानो शब्द अमृतकण की तरह कण्ठ से उतर रहे हैं और अश्रु बनकर आँखों से अविरल बह रहे हैं. इस लम्बी कविता को कवि का आत्मकथ्य तथा कवि और कविता का अंतर्द्वंद्व कह सकते हैं. इस कविता के विषय में कुछ भी कह पाने के लिये मैं स्वयम को कदापि समर्थ नहीं पाता. आज जितनी कविताएँ लिखी जा रही हैं, उन रचनाकारों को केवल एक बार ईमानदारी से यह कविता पढ़ना अनिवार्य मानता हूँ मैं. एक कवि की महायात्रा का एक प्रभावशाली, भावपूर्ण तथा सम्वेदनशील वृत्तांत...


ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता 
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से 
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्वा का त्याग है
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढकर आएगी या गर्दभ पर 

या फिर


कोई नहीं जानता है कहाँ से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहाँ को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहाँ पहुँच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीं उतरती हैं पारिजात-सी सुगन्धित 
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकती 
मेघदूत की पंक्तियाँ
उसके बाद केवल किम्वदंतियाँ
जनश्रुतियाँ...

सुधांशु फ़िरदौस जी की कविताओं की भाषा स्वत: अंतर्मन से प्रस्फुटित भाषा है जो कहीं संस्कृतनिष्ठ है तो कहीं उर्दू से प्रभावित, किंतु यह सब उतना ही सहज है, जितनी सहजता से उन्होंने उन कविताओं को जिया है.

टॉल्स्टॉय के अनुसार – कोई कृति चाहे कितनी ही कवितामयी, कौतूहलजनक या रोचक क्यों न हो, वह कलाकृति नहीं हो सकती, यदि कलाकार अपनी कला से दूसरों को प्रभावित न करता और स्वयम आत्मविभोर नहीं होता.

और विश्वास कीजिये गणित के इस शोधार्थी की रचनाएँ एक बेहतरीन समीकरण है पाठकों को प्रभावित करने और आत्मविभोर होकर कविता के सृजन करने का.